Book Title: Prashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Author(s): Kapurchand Jain
Publisher: Mahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali

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Page 527
________________ 454545454545454545454545454545 की आलोचना की गयी है। उनमें से कुछ नाम इस प्रकार हैंTE तदेतदना लोभितामिधानं मण्डनमिश्रस्य। एतेनैतदपि प्रत्याख्यातं यदुक्तं ITE - धर्मकीर्तिना। यदाह धर्मकीर्तिः इति धर्मकीर्तिदूषणम्। ततोविवक्षारूढ एवार्थो वाक्यस्य न पुनर्भावना इति प्रज्ञाकरः । नेदं प्रज्ञाकर वचश्चारुः। यदप्यवादि प्रज्ञाकरेण। तदेतदपि प्रज्ञाकरापराध विज़म्भितं प्रज्ञाकरस्य। इति कश्चित ठा सोऽप्यप्रज्ञाकर एव । इति प्रज्ञाकरमतमपास्तम्। इस प्रकार अनेक ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के सिद्धान्तों का उल्लेख अष्टसहस्री में उपलब्ध होता है। यही कारण है कि अष्टसहस्री के अध्ययन से स्वसमय और परसमय का बोध सरलतापूर्वक हो सकता है। अष्टसहत्री का प्रतिपाच विषय अष्टसहस्री में 10 परिच्छेद हैं और इनमें आप्तमीमांसा की 114 कारिकाओं की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की गयी है। प्रथमपरिच्छेद-इस परिच्छेद में 23 कारिकाओं की व्याख्या प्रस्तुत की गयी है। सर्वप्रथम देवागमन आदि, निःस्वेदत्व आदि अन्तरंग अतिशय, गन्धोदकवृष्टि आदि, बहिरंग अतिशय तथा तीर्थकरत्व आदि उन विशेषताओं की मीमांसा की गयी है जिनके कारण कोई अपने को आप्त मान सकता है। - इसके बाद यह सिद्ध किया गया है कि किसी पुरुष में दोष और आवरणों 51 की सम्पूर्ण हानि हो जाती है। सामान्य से सर्वज्ञ को सिद्ध करके पुनः LE युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्व हेतु से अर्हन्त में निर्दोषत्व और आप्तत्व सिद्ध किया गया है। इसके बाद यह बतलाया गया है कि एकान्तवादियों के यहाँ पुण्य-पाप कर्म, परलोक आदि कुछ नहीं बन सकता है। भावैकान्त मानने पर प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव का निषेध हो जायेगा और ऐसा होने पर कार्यद्रव्य में अनादिता, अनन्तता. सर्वात्मकता और अचेतन में चेतनता का तथा चेतन में अचेतनता का प्रसंग प्राप्त होगा। वस्तु न तो सर्वथा भावरूप है और न सर्वथा अभावरूप है। उसे सर्वथा अवाच्य रूप भी नहीं कहा जा सकता। अस्तित्व नास्तित्व का अविनामावी है और नास्तित्व अस्तित्व का अविनाभावी है तथा अस्तित्व-नास्तित्व रूप वस्तु ही शब्द का विषय होती है। TE विधि और निषेध से रहित वस्तु अर्थक्रिया भी नहीं कर सकती है। स्याद्वादन्याय 1 में अपेक्षा विशेष से वस्तु को कथंचित् सत. असत. उभय, अवाच्य, सदवाच्य, 4 असदवाच्य और सदसदवाच्य सिद्ध किया गया है। इसी प्रकार एकत्वअनेकत्वादि 545454545454545454545454555 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 481 दानानानानानानानानानानानानामा -EFFFFIFIFIFIFISTER

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