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और
होने से बन्ध को प्राप्त होंगे। अन्त में पुण्यबन्ध और पापबन्ध के कारणों का - समन्वय करते हुए कहा गया है कि यदि स्व तथा पर में होने वाला सुख ,
द्ध और संक्लेश का अंग है तो वह क्रमशः पुण्यबन्ध और 1 पापबन्ध का कारण होता है और यदि वह विशुद्धि और संक्लेश दोनों में से 4
- किसी का भी अंग नहीं है तो वह बन्ध का कारण नहीं होता है। - दशम परिच्छेद-इस परिच्छेद में 96 से 114 तक 19 कारिकाओं की
व्याख्या प्रस्तुत की गयी है। यहाँ सर्वप्रथम बन्ध और मोक्ष के कारण के विषय में विचार किया गया है। यदि अज्ञान से बन्ध का होना माना जाये तो ज्ञेयों की अनन्तता के कारण कोई भी केवली नहीं हो सकेगा। इसी प्रकार यदि अल्पज्ञान से मोक्ष माना जाये तो बहुत अज्ञान के कारण बन्ध होता ही रहेगा और मोक्ष कभी नहीं हो सकेगा। तदनन्तर स्याद्वादन्याय के अनुसार बन्ध और - मोक्ष के कारण की व्यवस्था बतलाते हुए कहा गया है कि मोहसहित अज्ञान । से बन्ध होता है, मोह रहित अज्ञान से नहीं। इसी प्रकार मोहरहित अल्पज्ञान से मोक्ष संभव है, किन्तु मोह सहित ज्ञान से मोक्ष नहीं होता है। इसके बाद प्रमाण के भेद बतलाकर उनका फल बतलाया गया है। तदनन्तर स्याद्वाद का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि स्यात् शब्द एक धर्म का वाचक होता हुआ अन्य अनेक धर्मों का द्योतक होता है। स्याद्वाद सात भंगों और नयों की अपेक्षा लिए हुए होता है। निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं और सापेक्षनया अर्थक्रियाकारी होते हैं। एकान्तों को मिथ्या होने पर भी सापेक्ष एकान्तों का समूह अनेकान्त मिथ्या नहीं है। स्याद्वाद, और केवल ज्ञान दोनों सर्वतत्त्व प्रकाशक हैं। उनमें अन्तर यही है कि केवलज्ञान साक्षात सर्वतत्त्वों का प्रकाशक है और स्याद्वाद परोक्षरूप से उनका प्रकाशक है। इस प्रकार इस परिच्छेद में स्याद्वाद की सम्यक स्थिति का प्रतिपादन किया गया है और स्याद्वाद और संस्थिति ही आचार्य समन्तभद्र और आचार्य विद्यानन्द का मुख्य प्रयोजन है।
इस प्रकार यहाँ अष्टसहस्त्री के दश परिच्छेदों में प्रतिपादित विषयों का संक्षेप में दिग्दर्शन कराया गया है।
वाराणसी
उदयचन्द जैन
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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