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44 व्याख्या की गयी है। इसमें अन्तरंगार्थंकान्त (ज्ञानाद्वैत) और बाह्यार्थकान्त TE की समीक्षा करते हुए कहा गया है कि यदि सर्वथा ज्ञानमात्र ही तत्त्व है तो TE
सभी बुद्धियाँ (अनुमान) और वचन (आगम) मिथ्या हो जायेंगे। अनेक दोष
आने के कारण अनुमान से भी विज्ञप्तिमात्र तत्त्व को सिद्ध नहीं किया जा - सकता है। केवल बाह्यार्थ की सत्ता मानने पर प्रमाणामास का लोप हो जायेगा।
और ऐसा होने से प्रत्यक्षादि विरुद्ध अर्थ का प्रतिपादन करने वाले सभी लोगों के मतों की सिद्धि हो जायेगी। इस परिच्छेद के अन्त में जीव तत्त्व की सिद्धि की गयी है। संज्ञा होने से जीव शब्द बाह्यार्थ सहित है। प्रत्येक अर्थ की
तीन संज्ञाए होती हैं-बद्धिसंज्ञा. शब्दसंज्ञा और अर्थसंज्ञा। तथा ये तीनों LE संज्ञाएं बुद्धि, शब्द, और अर्थ की वाचक होती हैं। बुद्धि और शब्द में प्रमाणता
बाह्य अर्थ के होने पर होती है और बाह्य अर्थ के अभाव में उनमें अप्रमाणता 51 होती है।
अष्टम परिच्छेद-इस परिच्छेद में 88 से 91 तक चार कारिकाओं की व्याख्या की गयी है। इसमें दैव और पुरुषार्थ के विषय में विचार किया गया है। यदि दैव से ही अर्थ की सिद्धि मानी जाय तो दैव की सिद्धि पौरुष से
कैसे होगी। और दैव से ही दैव की निष्पत्ति मानने पर मोक्ष का अभाव हो F- जायेगा। यदि पुरुषार्थ से ही अर्थ की सिद्धि मानी जाय तो पुरुषार्थ दैव से 51 कैसे होगा। और यदि पुरुषार्थरूप कार्य की सिद्धि भी पौरुष से ही मानी जाये । LF तो सब पुरुषों में पुरुषार्थ को सफल होना चाहिये । अन्त में दैव और पुरुषार्थ LE
का समन्वय करते हुए बतलाया गया है कि जहाँ इष्ट और अनिष्ट वस्तुओं की प्राप्ति बुद्धि के व्यापार के बिना होती है वहाँ उनकी प्राप्ति दैव से मानना चाहिए। और जहाँ उनकी प्राप्ति बुद्धि के व्यापारपूर्वक होती है वहाँ उनकी प्राप्ति पुरुषार्थ से मानना चाहिए।
नवम परिच्छेद-इस परिच्छेद में 92 से 95 तक चार कारिकाओं की व्याख्या की गयी है। इसमें पुण्य और पाप का बन्ध के विषय में विचार किया गया है। पहले यह बतलाया गया है कि यदि पर को दुःख देने से पाप का बन्ध और सुख देने से पुण्य का बन्ध माना जाय तो अचेतन पदार्थ और कषाय रहित जीव भी पर के सुख-दुःख में निमित्त होने से बन्ध को प्राप्त होंगे। यदि अपने को दुःख देने से पुण्य का बन्ध और सुख देने से पाप का बन्ध माना जाये तो वीतराग तथा विद्वान् मुनि भी अपने सुख-दुःख में निमित्त है
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर मणी स्मृति-ग्रन्थ
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