Book Title: Prashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Author(s): Kapurchand Jain
Publisher: Mahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali

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Page 529
________________ 45454545454545454545454545454545 कीव्याख्या की गयी है। पहले वैशेषिकों के मेदैकान्त की समीक्षा करते हुए 4 ए कहा गया है कि यदि कार्य और कारणों में, गुण और गुणी में तथा सामान्य 1 और विशेष में सर्वथा अन्यत्व है तो एक का अनेकों में रहना संभव नहीं है। क्योंकि एक की अनेकों में वृत्ति न तो एक देश से बन सकती है और न सर्वदेश से। अवयव और अवयवी में सर्वथा भेद मानने पर उनमें देशभेद और कालभेद भी मानना पडेगा। तब उनमें अभिन्नदेशता कैसे बन सकेगी। अवयव-अवयवी आदि में समवाय का निषेध, नित्य, व्यापक और एक सामान्य तथा समवाय का निराकरण किया गया है। तदनन्तर सांख्य के अनन्यतैकान्त - की आलोचना करते हुए कहा गया है कि यदि कार्य और कारण सर्वथा अनन्य हैं तो उनमें से एक का ही अस्तित्व रहेगा। विरोध आने के कारण कार्य-कारण आदि में सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद नहीं माना जा सकता है। यहाँ भेद और अभेद के विषय में सप्तभंगी प्रक्रिया बतलायी गयी है। पञ्चम परिच्छेद-इस परिच्छेद में 73 से 75 तक तीन कारिकाओं की व्याख्या की गयी है। इसमें वस्तुतत्त्व की सर्वथा आपेक्षिक सिद्धि और सर्वथा अनापेक्षिक सिद्धि मानने की समीक्षा की गयी है। यदि धर्म और धर्मी आदि T- की आपेक्षित सिद्धि मानी जाये तो दोनों की ही व्यवस्था नहीं बन सकती है। और अनापेक्षिक सिद्धि मानने पर उनमें सामान्यविशेषभाव नहीं बनता है। वास्तव में धर्म और धर्मी का अविनाभाव ही एक दूसरे की अपेक्षा से सिद्ध होता है, स्वरूप नहीं। स्वरूप तो कारकाङ्ग और ज्ञापकाङ्ग की तरह स्वतः सिद्ध है। षष्ठ परिच्छेद- इस परिच्छेद में 76 से 78 तक तीन कारिकाओं की व्याख्या की गयी है। पहले यह बतलाया गया है कि हेतु से सब वस्तुओं की सर्वज्ञा सिद्धि मानने पर प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों से उनका ज्ञान नहीं हो सकेगा और सर्वथा सिद्धि मानने पर प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों से उनका ज्ञान नहीं हो सकेगा और आगम की सर्वथा सिद्धि मानने पर परस्पर विरुद्ध मतों की भी सिद्धि हो जायेगी। यथार्थ बात यह है कि जहाँ वक्ता आप्त न हो वहाँ हेतु से साध्य की सिद्धि होती है और जहाँ वक्ता आप्त हो वहाँ आगम' TE से वस्तु की सिद्धि होती है। इस परिच्छेिद के अन्त में मीमांसकाभिमत वेदापौरुषेयत्व का निराकरण किया गया है। सप्तम परिच्छेद- इस परिच्छेिद में 79 से 87 तक 9 कारिकाओं की - I प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 483 154545454545454545454545454545456

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