Book Title: Prashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Author(s): Kapurchand Jain
Publisher: Mahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali

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Page 508
________________ 155555555445455455555454545454545 45 सभा सहित भट्टारक 11/जती चालता रथ कू बंद कर दी, और कहा यहां T की पूजा करया रथ चाले तो तदि आचार्य या कही हाथ्या ने खोल दी। रथ बिना हाथ्या ही चालसी। हाथी खोल्या पाछे रथ पाव कोष चाल्यो और जती न कुहवाई अब थारी सामर्थ दिखातद आचार्य के पंगा पडया । प्रतिष्ठा में रुपया पांच लाख लाग्या।" श्री जगत्कीर्ति चमत्कारिक भट्टारक थे। समाज की किसी भी विपत्ति प में वे सहायता करते थे। वे संवत् 1770 तक आमेर की गादी पर भट्टारक रहे। इस प्रकार हम देखते हैं, कि मुस्लिम युग में भट्टारक ही आचार्य से अधिक सम्मानित थे। आचार्य पद तक पहुंचने के पश्चात् भी उन्हें भट्टारक पद अच्छा लगता था और अवसर मिलने पर वे भट्टारक बन जाया करते थे। मस्लिम शासकों द्वारा इन भट्टारकों के सम्मान का सदा ध्यान रखा जाता था और फरमानों के द्वारा उनके विहार एवं आयोजनों की रक्षा की जाती थी। उन्हें मान-सम्मान दिया जाता था। कुन्द-कन्द का समन्वयवाद जैन समाज के प्रवर्तमान माहोल (आचार-विचार) को आगमिक परिप्रेक्ष्य - में अध्यात्मयुग, यदि कहा जाये तो अत्युक्ति नहीं होगी। लगभग छः दशक पूर्व जन साधारण अध्यात्म शब्द का अर्थ भी नहीं समझते थे, उसके प्रतिपाद्य LE विषय की चर्चा-मनन तो दूर की बात थी। आज स्थिति यह है कि व्यापक रूप से सर्वत्र अध्यात्मवाद की चर्चा है। तत्प्रधान शास्त्र, समयसार, प्रवचनसार, रयणसार, पंचास्तिकाय जैसे अध्यात्म प्रधान ग्रंथ सार्वदेशिक रूप में जैन समाज के न केवल मंदिरों में अपितु घर-घर में विद्यमान हैं। निश्चित ही यह स्थिति जैन तत्वज्ञान, उसके विस्मृतप्राय अध्यात्मिक पक्ष के पुनरुत्थान के रूप में हर्ष का विषय है। अन्यथा जैनागम के समकक्ष, व्यवहार-पक्ष तक ही लोगों की मनन क्षमता व प्रवृत्ति सीमित हो गई थी। किसी भी क्षेत्र में नवीनता, क्रियात्मक सरलता और लौकिक स्वार्थों में निर्बाधता आकर्षण व उत्साहता का विषय मानी गई है। यहां भी यही हुआ। किन्तु इनके भाष्यकारों, विश्लेषणकों में अपने निरपेक्ष प्रवचनों, साहित्य सजन द्वारा इस पक्ष पर इतना जोर दिया कि निश्चय का सहोदर ही नहीं अपितु FI आलम्बन साधन भूत व्यवहार पक्ष उपेक्षित होने लगा। किन्तु सैद्धान्तिक सत्य 4545454545454545454545454545454545454545 - -1462 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ । 5579754545454545457467457467451497455

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