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जी ने इसी आशय को अपने कलश श्लोक में इस प्रकार स्पष्ट किया है। 4
यः एव मुवतवा नय पक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यम्।। विकल्प जालिम च्युत शान्तचिन्ता तएव साक्षादमृतं पिबन्ति।।
जो नयों के पक्षपात को छोड़कर आत्मस्वरूप में लीन रहते हैं वे सभी पक्षपातों से रहित शांत- चित्त होकर साक्षात् अमृत पान करते है।
इस तरह आ. कुंद-कुंद और उनके टीकाकार श्री अमृतचन्द्र ने निश्चय और व्यवहार को समान कोटि में रखा है। यदि व्यवहार एक पक्ष है तो निश्चय वैसा ही दसरा पक्ष है। आत्मस्वरूप में लीन होने के लिये दोनों पक्षों की
आवश्यकता नहीं, किन्तु वस्तु के निर्विवाद स्वरूप को समझने के लिये दोनों LE नयों के पक्षपात की आवश्यकता होती है।
आचार्य अमृतचन्द्र जी अपनी सन्तुलित समन्वयात्मक दृष्टि के लिये स्यादवाद अधिकार में प्रत्येक कार्य की सिद्धि के लिये उपाय-उपेयभाव को TE स्पष्ट स्वीकार करते हैं। जिसमें व्यवहार को उपाय और निश्चय को उपेय
माना है अर्थात् दोनों में साध्य-साधन भाव माना है। व्यवहार को भेद रत्नत्रय
कहकर उसे अभेदरत्नत्रय का साधन कहा है। अभेद रत्नत्रय को साध्य माना - है। चूंकि सर्वज्ञ केवली प्ररूपित वस्तु स्वरूप को गणधर सुनते हैं। बाद में
इसे ग्रथित किया जाता है जो श्रुत कहलाने लगता है। यह श्रुत नयप्रधान
होता है। जैसा कि अमलचन्द्राचार्य ने कहा है-"उभयनयायता हि पारमेश्वरी LF देशना ।" इस वाक्य से स्पष्ट है कि सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट श्रुत निश्चय और व्यवहार दोनों नयों को लेकर होता है।
जैन दर्शन में वस्तु का ज्ञान, प्रमाण नय से होता है। प्रमाण वस्तु में E रहने वाले परस्पर विरोधी धर्मों को एक साथ ग्रहण करता है, जबकि नय विवक्षित अंश को ग्रहण कर शेष अंशों धर्मों का अस्तित्व स्वीकार करता है उनका निषेध या विरोध नहीं। किसी व्यक्ति के साथ पृथक संबंध रखने वाले अनेक व्यक्ति अपने अभिप्रेत संबंधों से उसे संबोधित करते हैं। अन्य व्यक्तियों के साथ उसके संबंध का अपलाप नहीं करते। यही स्थिति नय की भी है।
वह अभिप्रेत विषय को मुख्य और अनभिप्रेत विषय को गौण कर देता है छोडता - नहीं, नकारता नहीं है। 1. एक साथ दोनों विषयों का प्रतिपादन संभव भी नहीं। उस अवस्था 卐 में वस्तु अवक्तव्य बन जाती है। नय वचनात्मक पदार्थ श्रुत के भेद हैं। अतः
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प्रशममर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ