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45145245454545454545454545454545755 15 जीवाश्रित तादात्म्य जैसी अवस्था को प्राप्त हो रहे रागादि परिणामों को अजीव के
सिद्ध किया है। रागादिभाव, मार्गणा, गुणस्थान, जीवसमासादि भावों को अजीव 17 प्रमाणित करते हुए पुनः कहते हैं कि यह घट पटादि की तरह अजीव नहीं।
यहां अजीव से तात्पर्य है कि ये जीव की निज परिणति नहीं। जीव की निजपरिणति या स्वभाव होने पर ये त्रिकाल में भी जीव से पृथक नहीं किये जा सकते थे। ये अग्नि के संबंध से उत्पन्न जल की उष्णता की भांति
क्रोधादि कषायों के उदय से होने वाली रागादि रूप परिणति है, जो आत्मा 51 के अनुभूत होती है। किन्तु ये आत्मा के विभाव भाव हैं, स्वभाव नहीं। ये आत्मा
के अलावा रागादि भाव जन्य, अन्य जड़ पदार्थों में नहीं होते हैं, किन्तु आत्मा के उपादान से आत्मा से उत्पन्न होते हैं। इन्हें आत्मा का कहना व्यवहारनय है।
पुण्य पाप के प्रकरण में आचार्य कुंद-कुंद पुण्याचरण का निषेध नहीं 21 करते। किन्तु पुण्याचरण को वे साक्षात् मोक्ष का कारण नहीं मानते। यानि
जीव अपने पद के अनुरूप पुण्याचरण करता है और उसके फलस्वरूप चक्रवर्ती जैसे लोकोत्कृष्ट पदों को प्राप्त कर सुख भोगता है। किन्तु श्रद्धा यही रखता है कि पुण्य मोक्ष का कारण नहीं है। आचार्य कुंद-कुंद का कहना
है कि जिस प्रकार पापाचरण बुद्धिपूर्वक छोड़ा जाता है उस प्रकार पुण्य नहीं। - वह तो शुद्धोपयोग की भूमिका पर पहुंचने पर स्वयमेव छूट जाता है। जिनागम
का कथन सापेक्ष होता है। अतः शुद्धोपयोग की अपेक्षा शुभोपयोग त्याज्य कहा है। परन्तु अशुभोपयोग की अपेक्षा उसे उपादेय कहा है। अशुभोपयोग सर्वथा अनुपादेय ही है। किन्तु शुभउपयोग पात्र की अपेक्षा उपादेय-अनुपादेय दोनों हैं।
कर्ता कर्माधिकार में आत्मा पर द्रव्य के कर्तृत्व से रहित है। ऐसा तर्क L: दिया गया है कि प्रत्येक द्रव्य अपने ही गुण और पर्याय रूप परिणमन करता
है अन्य द्रव्य रूप नहीं। इसलिये वह पर का कर्त्ता नहीं हो सकता। यही कारण है कि आत्मा कर्मों का कर्ता नहीं है। कर्मों का कर्ता पुदगल द्रव्य 51 है क्योंकि ज्ञानावरणादि रूप परिणमन् पुदगल में ही होता है। इसी तरह रागादि का कर्ता आत्मा ही है, पर द्रव्य नहीं। क्योंकि रागादिरूप पारिणमन् आत्मा ही करता है। निमित्त प्रधान दृष्टि को लेकर पिछले अधिकार में
पुदगल-जन्य होने के कारण राग को पौद्गगिलक कहा है। यहां उपादान 1 दृष्टि को लेकर कहा गया है कि चूंकि रागादि रूप परिणमन आत्मा का होता ।
है अतः वे आत्मा के हैं। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने यहां तक कहा है कि जो जीव रागादि की उत्पत्ति में परद्रव्य को ही निमित्त मानते हैं, वे समीचीन ज्ञान
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1 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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