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HF में किसी को मत छोड़ो। व्यवहार का परित्याग करने से तीर्थ प्रवृत्ति नष्ट
हो जायेगी, और निश्चय के त्याग से तत्व का स्वरूप नष्ट हो जायेगा। यद्यपि
आचार्य कुंद-कुंद ने एकत्व विभक्त अन्देत आत्मा का वर्णन करने के लिये LE.निश्चय दृष्टि को प्रधान रखा है, किन्तु उन्होंने इस बात का पूरा ध्यान रखा
है कि सामान्य जीव अमित न हो जाय, किसी सीमा तक उपयोगी व्यवहार 1 को भुला न बैठे। अतः बीच-बीच में विषय को समझाने के लिये व्यवहार दृष्टि
का संकेत किया है। - गाथा नं. 6 में आ. कुंद-कुंद कहते हैं कि यह आत्मा न प्रमत्त है न
अप्रमत्त है. शुद्ध ज्ञायक है। और तो क्या आत्मा में ज्ञानदर्शन भी नहीं है। किन्तु सातवीं गाथा में कहते हैं कि आत्मा में ज्ञान दर्शन चारित्र व्यवहारनय से है। गाथा नं. 8 में लिखते हैं कि बिना व्यवहार के परमार्थ का उपदेश नहीं हो सकता। दोनों नयों के विरोध को दूर करने वाले स्यादवाद से अंकित भगवान के वचनों में जो आस्था रखते हैं रमण करते हैं वे शीघ्र ही उस समयसार ज्योति को देखते हैं जो सनातन है और किसी नय से खण्डित नहीं होती।
उभय नय विरोधध्वंसिभि स्यात्यवांके जिन वचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः। सपदि समय सारं ते परंज्योति रूच्चै
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ।।
आगे चलकर वर्ण, रस, गंध, रागद्वेष मार्गणा गुणस्थान आदि का जीव 47 में निषेध किया है। परन्तु गाथा 56 में इन्हीं सब बातों का अस्तित्व आत्मा +
में व्यवहार नय से स्वीकारा है। तत्पश्चात आत्मा के अस्तित्व का प्रतिपादन F- करते हैं। भाव्य-भावक ज्ञेय-ज्ञायक भाव का विश्लेषण करते हुए आत्मा घटपट
द्रव्यों का कर्ता है। ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों तथा क्रोधादि भाव कर्मों को कर्ता है। ऐसा मानते हैं।
इस सापेक्ष दृष्टिकोण से वर्णित विषयों में उत्पन्न होने वाली शंकाओं
और प्रश्नों का 'कि आत्मा बद्ध स्पृष्ट या अबद्ध अस्पृष्ट है इसका समाधान TE करते हुए वे तात्विक वस्तु स्थिति को स्पष्ट करते हैं कि जीव में व्यवहार 1 और निश्चय नय से क्रमशः वर्णित बद्धस्पृष्टता और अबद्धस्पृष्टता ये दोनों ।
ही नय पक्षपात हैं। समयसार इन दोनों पक्षों से रहित हैं। आचार्य अमृतचन्द्र 1 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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