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45 नाम प्रथम पंक्ति में लिया जा सकता है। इनकी रचनायें चरित-काव्य, पुराण, 4
पूजा, टीकायें, सुभाषित जैसे विषयों पर आधारित हैं। पुराणों में पाण्डवपुराण की रचना की थी। चरित-काव्यों में करकण्डु चरित्र, जीवन्धर चरित्र, प्रद्युम्न चरित, श्रेणिकचरित्र, चन्दनाचरित्र, जैसे काव्यों की रचना करके स्वाध्याय
प्रेमियों के लिये सामग्री उपस्थित की, तथा 25 से अधिक पूजा ग्रंथों की रचना 51 करके चारों ओर पूजा करने वालों की मांग को पूरा किया तथा धार्मिक क्षेत्र LE में पूजा प्रतिष्ठा को अधिक महत्व दिया। समयसार की टीका लिखकर अपने
अध्यात्म प्रेम को जागृत किया, तथा समयसार के पठन-पाठन को सरल -बनाया।
भ. शुभचन्द्र ने हिन्दी-राजस्थानी भाषा में सात लघ रचनायें लिखकर उन पाठकों के मन को जीत लिया जो केवल हिन्दी माध्यम से जैन तत्वज्ञान को जानना चाहते थे। इसलिये शुभचन्द्र ने तत्वसार कथा, दान छंद, महावीर छंद, नेमिनाथ छंद, विजयकीर्ति छंद, अष्टाहिनका गीत जैसी लघु रचनायें निबद्ध की। विजयकीर्ति छंद एवं गुरु छंद में भ. विजयकीर्ति जी का ऐतिहासिक परिचय दिया गया है।
इस प्रकार भ. शुभचन्द्र जी भट्टारक शिरोमणि एवं आचार्यों के आचार्य थे। उनके विशाल व्यक्तित्व एवं उनके ज्ञान कोष के सामने ये उपाधियां कोई महत्त्व नहीं रखती। भ. शुभचन्द्र जी का व्यक्तित्व जैन समाज को सदा ही प्रभावित करता रहेगा।
भट्टारक रत्नकीर्ति एवं भट्टारक कुमुदचन्द्र जी I भ. रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र जी दोनों गुरु-शिष्य थे। रत्नकीर्ति जी । 45 का जन्म गुजरात के घोधा नगर में हुआ। उनके पिता हूमड़ जातीय श्रेष्ठी
देवीदास थे। माता का नाम महजबदेवी था। भट्टारक रत्नकीर्ति का पट्टाभिषेक संवत् 1630 की वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। इस गादी पर वे 26 वर्ष
तक रहे। जितना परिचयात्मक साहित्य श्री रत्नकीर्ति एवं श्री कुमुदचन्द्र जी F- के बारे में मिलता है उतना किसी अन्य आचार्य, भट्टारक एवं
साधु के बारे में नहीं मिलता। ऐसा लगता है कि दोनों भट्टारक ही जनता 17 में इतने घुल-मिल गये थे कि जनता उनके आगमन पर पलक पावड़े बिछा
देती तथा उनका गुणगान करने में नहीं थकती थी। भ. रत्नकीर्ति के जासंबंध में लिखा हुआ एक पद देखिये :
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ -
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