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2ी रावण की मृत्यु राम के नहीं लक्ष्मण के हाथ से हुई। राम के पुत्रों के नाम - अनङ्गलवणा और मदनाङ्कुश कहे गये हैं। अन्त में राम दिगम्बर दीक्षा धारण कर मोक्ष प्राप्त करते हैं।
पदमचरित की भाषा सरल, सरस, गम्भीर और पुराणशैली के अनुरूप है। अलंकारों का प्रयोग रविषेणाचार्य का लक्ष्य नहीं रहा तथापि वे काव्य में
यत्र-तत्र स्वयमेव आ गये हैं। अनुप्रास, यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा, रुपक, 12 अतिशयोक्ति, अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों का तथा लगभग 41 प्रकार के । छन्दों का प्रयोग पदमचरित में हुआ है। भूगोल की दृष्टि से भी पुराण महत्त्वपूर्ण है। इसकी सूक्तियाँ तो सहृदयों को कण्ठहार हैं।
पदमचरित में वर्णित जैन रामकाव्य परम्परा परवर्ती जैन कवियों का उपजीव्य तो रही ही हैं, जैनेतर कवियों ने भी इसे पूर्ण या आंशिक रूप में उपजीव्य बनाया है। उपेक्षित पात्रों के प्रति सहानुभूति जैन रामकाव्य परम्परा की अपनी विशेषता है। प्रसिद्ध समालोचक डॉ. नगेन्द्र ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है-"जैन परम्परा के अनुसार रामायण के पात्रों का जो स्वरूप सम्मुख आता है, वह आस्था एवं परम्परा में पोषित विचारकों को किंचित् मिन्न एवं अग्राह्य भी प्रतीत हो सकता है, किन्तु संशय की भाव-भूमि में पल्लवित आधुनिक मनीषा को वह कुछ अधिक आकृष्ट करता है। प्रतिपात्रों में नायकीय महदगुणों की कल्पना तथा उपेक्षित पात्रों के प्रति सहानुभूति, जो आधुनिकता - का गुण कहा जा सकता है, जैन रामकाव्य-परम्परा में इन दोनों तत्त्वों का स्पष्ट आभास मिलता है।
अन्त में हम आचार्य रविषेण के साथ यही कहना चाहेंगे कि सत्पुरुषों की कथा से उत्पन्न यश यावच्चन्द्रदिवाकरौ' रहता है। अतः उनका कीर्तन
कर अपना यश स्थायी बनाना चाहिए-"अल्पकालमिदं जन्तोः शरीरं - रोगनिर्भरम्।
यशस्तु सत्कथाजन्म यावच्चन्द्रार्कतारकम् ।। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन पुरुषेणात्मवेदिना। शरीरं स्थास्तु कर्तव्यं महापुरुष कीर्तनम् ।
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सन्दर्भ F- (1) स च धर्मः पुराणार्थः पुराणं पञ्चधा विदुः।
क्षेत्र कालश्च तीर्थं च सत्पुसस्तद्विचेष्टितम् ।।"
आदिपुराण 2/38 1(2) पदमपुराण (भा. ज्ञानपीठ) 123/182 21 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-प्रन्थ
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