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5145146145454545454545454545454545 1. की द्योतक है। 57 वर्ष के लम्बे समय तक इन्होंने राजस्थान के दूढाहड़ प्रदेश के में विहार करके वहां के सांस्कृतिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
भट्टारक जिनचन्द्र भट्टारक शुभचन्द्र जी के पट्ट शिष्य भट्टारक जिनचन्द्र की गादी देहली में थी और वहीं से ये समाज का संचालन करते थे। संवत् 1548 में विशाल स्तर पर शहर मुंडासा में जीवराज पापड़ीवाल ने जिस प्रतिष्ठा का आयोजन
करवाया था उसके सूत्रधार भट्टारक जिनचन्द्र ही थे। इस प्रतिष्ठा में एक TE लाख से अधिक मूर्तियां प्रतिष्ठापित हुई थीं। देश में ऐसा कोई मंदिर नहीं :
होगा जिसमें संवत 1548 में प्रतिष्ठित प्रतिमा नहीं हो। पं. मेधावी इनके प्रमुख 4 शिष्य थे। मेधावी ने संवत् 1541 में धर्मसंग्रह श्रावकाचार की रचना की थी।
मेधावी ने भट्टारक जिनचन्द्र के साहित्य एवं विद्वत्ता की खूब प्रशंसा की है । तथा उन्हें व्याखान मरीचि, षट्तर्कनिष्णातधी जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया है।
भट्टारक प्रभाचन्द्र (द्वितीय) भट्टारक जिनचन्द्र जी के शिष्य भट्टारक प्रभाचन्द्र खण्डेलवाल जैन जाति के श्रावक थे। वैद इनका गोत्र था। श्री प्रभाचन्द्र अपने समय के प्रसिद्ध TE भट्टारक थे। एक लेख प्रशस्ति में इनके नाम के पूर्व, पूर्वाञ्चल-दिनमणि, 1 षट्तार्किकचूड़ामणि, जैसे विशेषण लगाए गये हैं।
तत्पदृस्थ श्रुताधारी प्रभाचन्द्रः श्रियाट्टनिधिः।
दीक्षितो यो लसत्कीर्तिः प्रचण्डः पण्डिताग्रणी।। श्री भट्टारक प्रभाचन्द्र जी का पट्टाभिषेक देहली में फाल्गुन कृष्णा 2 को बड़ी धूमधाम से हुआ। ये 25 वर्ष तक भट्टारक पद पर रहे। संवत 1593 में इन्हीं के मंडलाचार्य धर्मचन्द्र जी ने आवां नगर में होने वाले प्रतिष्ठा महोत्सव 1 का नेतृत्व किया। उसमें भगवान श्री शान्तिनाथ की एक विशाल एवं मनोज्ञ LE प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी थी। शान्तिनाथ स्वामी की इतनी मनोज्ञ एवं : 1 चमत्कारिक प्रतिमा बहुत कम स्थानों में मिलती है।
ब्रह्म बूचराज भट्टारक प्रभाचन्द्र के शिष्य थे और हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान थे। इस प्रकार भट्टारक शुभचन्द्र, जिनचन्द्र एवं प्रभाचन्द्र ने 100 से अधिक वर्षों तक राजस्थान, देहली तथा उत्तर भारत में अपने विहार, उपदेश एवं साहित्य संरचना के द्वारा समाज में एक नयी क्रान्ति को जन्म दिया तथा ।
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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