________________
45454545454545454545454545454545
5454545454545
प्रवचनसार परमागम में उपरोक्त उपयोग त्रय के वर्णन से सूर्य प्रकाशा - सदृश स्पष्ट है कि शुद्धोपयोग के धारी मुनि ही होते हैं। आ. जयसेन स्वामी LE
ने मुनि को ही (आचार्य को) दीक्षा गुरु और शिक्षागुरु कहा है। धार्मिक क्षेत्र में गुरु की श्रेणी में निर्ग्रन्थ दि. श्रमण ही आते हैं। जो गृहस्थ दशा में ही अहंकार वश एवं भ्रमवश अपने को शुद्धोपयोगी एवं निर्बन्ध मानकर एकान्त TE निश्चयाभास में सतुष्ट हैं, वे 'इतो भ्रष्टा ततो भ्रष्टा' होकर दोनों लोक बिगाड़ रहे हैं तथा समाज को दिगभ्रमित कर पाप का संचय कर रहे हैं। जो कार्य 57 कर सकते हैं उसे हेय कहकर उपेक्षा कर पाप पंक में आकण्ठ डूब रहे हैं। प्रवचनसार समुचित दिशा निर्देशक है। आ. कुन्दकुन्द की नय विवक्षा तो माध्यस्थ भाव की ग्राहक है। समसयार नयपक्षातीत है। एकान्त का व्यवहाराभास भी निश्चयाभास के समान अग्राह्य है। प्रवचनसार को बिना जीवन में उतारे समयसार का गूढ़ रहस्य हृदयंगम नहीं किया जा सकता। प्रवचनसार में आ. श्री ने अध्यात्म-अमृतकलश का प्रबल प्रवाह सकारात्मक विधि के रूप में उड़ेला है। वे आज भी अपने वाङ्मय द्वारा अमर हैं।
मैनपुरी
पं० शिवचरण लाल जैन
347
1 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ LEELER TICLELETELETELETE -FIFIFIFIEFIFIFIFIFA