________________
45454545454545454545454545454545
7
F1 अध्यात्म विषय को आगम से अनुगमित करना चाहिए। इसीलिये अपने
विविध प्रकार के मंतव्यों में उन्होंने अपने विविध रूप व्यक्त किये हैं। E-(1) वे अपने ही द्वारा उठाई गई शंकाओं के निवारण में 'आप्तवचन',
'जिनवचन' का प्रमाण प्रस्तुत कर कहते हैं कि आगम अतर्क्स है। (2) वे 'स्वभावोऽतर्कगोचरः' कहकर अपनी निरीक्षण क्षमता को व्यक्त करते
4
(3) अनेक अवसरों पर वे तर्कवाद के आधार पर तत्त्व का निर्णय करते हैं
और अनेक मतों का खंडन करते हैं। (4) अधिकांश अवसरों पर उन्हें 'आप्तवचन' की प्रामाणिकता में शंका ग्राह्य नहीं है। (5) अपनी तार्किक शैली के द्वारा वे पर्याप्त बौद्धिक स्वतंत्रता के पक्षधर प्रतीत होते हैं और शिष्यों को तार्किक बनने के लिये परोक्ष रूप से प्रेरित करते हैं।
आचार्य के विषय में उनके शिष्य जिनसेन ने जो विशेषण दिये हैं, वे पूर्णतः सत्य सिद्ध होते हैं। आगमतुल्य ग्रंथ
आचार्य गुणधर का ‘कषाय प्रामृत' और आo पुष्पदंत-भूतबलि का 'षट्खंडागम' दिगंबर संप्रदाय के मान्य आगमतुल्य ग्रन्थ हैं। इनका विषय मार्गणा और गुणस्थान द्वारों के माध्यम से जीवतत्व का अंतरंग और बहिरंग विवरण है। ये दोनों ही ग्रंथ ईस्वीपूर्व प्रथम सदी से ईसोत्तर प्रथम सदी के बीच रचे कहे जाते हैं। प्रायः समस्त दिगम्बर जैन साहित्य इन्हीं के आधार पर विकसित किया गया हैं। कषाय प्राभृत, गाथा ग्रंथ है और षट्खंडागम सूत्र-ग्रंथ है। दोनों की भाषा शौरसेनी प्राकृत है। इन ग्रंथों की अनेक टीकायें लिखी गई हैं पर वीरसेन की धवला और जयधवला टीकायें अपूर्व और - सर्वमान्य हैं। इनका उद्धार बड़े परिश्रम, लगन और चतुराई के साथ बीसवीं ए सदी के तीसरे-चौथे दशक में हो सका।
आगम ग्रंथों में साधुगण को गणित और ज्योतिष विद्याओं में प्रवीण होने का निर्देश है। इसी का अनुसरण करते हए वीरसेन जी कहते हैं कि - द्रव्यानुयोग के अध्ययन के लिये गणित ही सारभूत है। गणित को विद्याओं
का शीर्ष कहा जाता है। समस्त प्रकार के लौकिक व्यवहार के लिये तथा एकाग्रता के अभ्यास द्वारा साधनापथ को उत्कर्ष देने के लिये गणित का ज्ञान आवश्यक है। प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
371
454545454545454545454545454
-
495453