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से संकीर्ण है, खून का तालाब है, मांस की राशि है, चर्बी का कलश है, मल
रूपी शैवाल का स्वल्प जलाशय है और रोगों का घोंसला है.......ऐसे चर्मयन्त्र के समान इस शरीर में तुम अधिक आदर मत करो।
- ग. चि. लम्भ 7 पृ. 281-282
माता विजया जब आश्रम में देवी के द्वारा ले जायी गई तो उसकी कारुणिक स्थिति का वर्णन वादीभसिंह ने किया है
सा च तत्र संतापकृशानु कृशतरा कृशोदरी करेणुरिव कलभेन, धेनुरिव दम्येन श्रद्देव धर्मेण श्रीखि प्रश्रयेण प्रज्ञेव विवेकेन, तनुजेन विप्रयुक्ता विगतशोभा सती विमुक्तभूषण तापसवेषधारिणी करुणाभिखि मूर्तिमतीभिर्मुनि पत्नीभिरुपलाल्यमाना......ग. चि. प्रथम लम्भ पृ. 79
सन्ताप से जिसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया था, ऐसी कृशोदरी विजया रानी उस आश्रम में बच्चे से रहित हस्तिनी के समान, बछड़े से रहित गाय के समान और विवेक से रहित प्रज्ञा के समान पुत्र के बिना सुशोभित नहीं हो रही थी। उसने सब आभूषण उतारकर दूर कर दिए तथा तपस्विनी का वेष धारण कर लिया। जो मूर्तिमती दया के समान जान पड़ती थीं ऐसी मुनि पत्नियाँ बड़े प्रेम से उसका लालन करती थीं।
सुरमञ्जरी के सामने जीवन्धर का वृद्ध रूप धारण कर जाने तथा नाटकीय ढंग से उपस्थित होने में हास्य रस की अवतारणा हुई है। आठ कन्याओं के साथ जीवन्धर कुमार का विवाह हो जाने पर श्रृंगार का अच्छा वर्णन किया गया
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जीवन्धर के दीक्षा ग्रहण करने के प्रसङ्ग में शान्त रस का परिपाक
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हुआ है।
इसी प्रकार अन्य रसों के उदाहरण भी वादीभसिंह के काव्यों में प्राप्त होते हैं।
सूक्ति वैभव-वादीभसिंह की क्षत्र चूडामणि जीवन और जगत सम्बन्धी अनुभवों से भरी हुई सूक्ति प्रधान रचना है। गद्यचिन्तामणि में भी स्थान-स्थान पर सूक्तियों का प्रयोग किया गया है। जैसे
दारिद्रयादपि धनार्जने तस्मादपि तद्रक्षणे ततोऽपि तत्परिक्षये परिक्लेशः सहस्रगुणः प्राणिताम् । ग. चि. द्वि. लम्भ पृ. 133
दरिद्रता की अपेक्षा धन कमाने में, धन कमाने की अपेक्षा उसकी रक्षा प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ
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