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भहार में पिरोया गया काच निन्दापने को प्राप्त करता है, किन्तु मणि प्रशस्तपने TE को ही प्राप्त होती है। दुःसह प्रताप के रहने पर भी श्रेष्ठ राजा में सुखोप र
सेव्यता, सकुमार रहने पर भी आर्यजनों के योग्य उत्तम आचार, अत्यधिक साहसी होते हुए भी समस्त मनुष्यों की विश्वासपात्रता, पृथिवी का भार धारण करने पर भी अखिन्नता, निरन्तर दान देने पर भी कोश की अक्षीणता, शत्रुओं के तिरस्कार की अभिलाषा होने पर भी परमकारुणिकता, काम की परतन्त्रता होने पर भी अत्यधिक पवित्रता देखी जाती है। उनकी इष्टफल की प्राप्ति कार्यारम्भ को, विद्या की प्राप्ति बुद्धि को, शत्रुओं का क्षय पराक्रम को, मनुष्यों . का अनुराग परहित तत्परता को, अनाक्रमण प्रताप को, विरुदावली दान को, कवियों का संग्रह काव्यरस की अभिज्ञता को, कल्याण रूप सम्पत्ति दृढ़ प्रतिज्ञा 4 को, लोगों के द्वारा अपने कार्यों का उल्लंघन न होना न्यायपूर्ण नेतृत्व को, TE धर्मशास्त्र के श्रवण करने की इच्छा तत्त्वज्ञान को, मुनिजनों के चरणों में नम्रता । दष्ट अभिमान के अभाव को, दान के जल से गीला किया हुआ हाथ माननीयता
को, जिनेन्द्रदेव की पूजा परमधार्मिकता को और क्षुद्र पशुओं का अभाव | 1 नीतिनिपुणता को चुपचाप सूचित करता है। जिस प्रकार धान के खेत में
बीज बोने वाले किसान आनन्दित होते हैं, उसी प्रकार (उत्तम) राजा को कर देना भी प्रीतिकर होता है। वह मन्द मुस्कान से इष्टकार्य सिद्ध कर आए हुए सामन्तों में कटाक्षपात से प्रसन्नता को प्राप्त मनुष्यों के लिए हजारों दीनारों F के देने में, कर्णदान से अनेक देशों से आने वाले गुप्तचरों के वचन सुनने - FA में, प्रतिबिम्ब के बहाने विद्याधर राजाओं के मुकुटों में, नेत्र से मित्र के शरीर 17 में निवास करता है। उसके दान गुण के द्वारा कल्पवृक्ष की महिमा मन्द - पड़ जाती है।वह पराक्रम से राजाओं के शरीर अथवा युद्ध को नष्ट करता
है। रणरूपी सागर को जीतने के लिए जहाज, तलवार रूपी सर्प के विहार 31 के लिए चन्दन वृक्षों के वन और क्षत्रियधर्म रूप सूर्य के लिये उदयाचल स्वरूप LE उसके द्वारा पृथिवी खरीद ली जाती है तथा प्रत्येक दिशा में उसके जयस्तम्भ -- गाड़ दिये जाते हैं। उपर्युक्त गुणों के अतिरिक्त बड़ों की सेवा करना,
विशेषज्ञता, नित्य उद्योगी और निराम्भी होना, विद्वानों का एकान्त सेवनीय TE होना', कानों को आनन्द देने वाले चरित्र का धारण, प्रकृति (मंत्री आदि) - को वश में करना, कवियों की मधुरध्वनि सुनने के लिए लालायित रहना'
तथा याचकों का मनोरथ पूर्ण करना राजा के प्रधान गुण हैं।
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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