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म क्योंकि भगवान की दिव्य समीपता होने पर सिद्धियाँ बिना बाधा के हो जाती
राजा के भेद-राजाओं के प्रमुखतः तीन भेद किये जाते थे-1. शत्रुराजा 2. मित्र राजा और 3. उदासीन राजा। इन्हीं के आधार पर देश भी तीन प्रकार के हो जाते थे। एक दूसरी अपेक्षा से राजा को मण्डलाधीश्वर, सामन्त'. अधिराट्, युवराज' तथा विद्याधर (नभश्चर) और भूचर" के रूप में विभाजित किया गया है। राज्याभिषेक-जब वैराग्य आदि के कारण राजा राज्य का परित्याग करता था, तब वह वृहस्पति के समान कार्य करने वाले (बुद्धि में श्रेष्ठ) मंत्रियों, नगरनिवासियों एवं पुरोहितों को बुलाता था। उनके साथ मंत्रणा कर यदि भाई अनुकूल हुआ तो भाई से राज्य सँभालने की याचना करता था। यदि वह भी विरक्ति आदि के कारण राज्य स्वीकृत नहीं करता था तो वंश के ज्येष्ठ, श्रेष्ठ गुणों के पात्र पुत्र को राज्य देता था। इस प्रकार राज्य का स्वामी कुलक्रमागत होता था। बलवान् शत्रु यदि राज्य को जीत लेता था तो वह भी राज्य का स्वामी होता था। ऐसे शत्रु को भी कभी यदि मूल राजकीय वंश का राजकुमार मार देता था अथवा युद्ध में परास्त कर देता था तो उस राजकुमार का ही राज्याभिषेक होता था। राज्याभिषेक के समय समस्त तीर्थों का जल लाकर स्वर्णमय कलशों से राजा का अभिषेक किया जाता था। अभिषेक का जल उत्तम औषधियों के संसर्ग से निर्मल होता था। इस समय देव, किन्नर तथा वन्दीगण तरह-तरह के बाजे बजाते थे। दूसरे राजा लोग अभिषिक्त राजा को प्रणाम करते थे। अभिषिक्त राजा अपने लाभ से प्रसन्नचित्त पुरवासियों को सोने का कड़ा, कम्बल तथा वस्त्र आदि देकर सन्तुष्ट करता था अनन्तर महत्त्वपूर्ण नियुक्तियाँ कर वह चाण्डालाधिकारी के द्वारा निम्नलिखित घोषणा करता था-समीचीन धर्म बुद्धि को प्राप्त हो। समस्त भूमि का अधिपति राजा कल्याण से युक्त हो, चिरकाल तक विघ्नबाधाओं से
पृथिवीमण्डल की रक्षा करे। पृथिवी समस्त ईतियों (प्राकृतिक F1 बाधाओं) से रहित और समस्त धान्यों सहित हो। भव्य जीव दिव्य जिनागम 17 LE के श्रद्धालु, विचारवान्, आचारवान्, प्रभाववान. ऐश्वर्यवान्, दयालु, दानी, सदा
विद्यमान गुरुभक्ति, जिनमक्ति, दीर्घायु, विद्वत्ता और हर्ष से युक्त हों। धर्मपत्नियाँ FI धार्मिक कार्य, पातिव्रत्य, पुत्र और विनय सहित हों।
प्रसममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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