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1EFIEEEETEIFETIFIFI 1 पर उन्होंने इस ग्रन्थ का प्रणयन किया है। यो. तो वह दिगम्बराचार्य थे, किसी।
एक स्थान पर रहते नहीं थे, भ्रमण ही करते रहते थे, तथापि संभावना उनके उत्तर भारतीय होने की ही अधिक हैं। अपने जिन गुरु आदिक का उन्होंने उल्लेख किया है. वे भी उत्तर की ओर के ही प्रतीत होते हैं।"
रविषेण ने जैसे बहुआयामी वर्णन किये हैं, उनसे यही लगता है कि उन्होंने समग्र भारत का भ्रमण किया था वर्णनों से उनके उत्तरभारतीय 1 अधिक होने की पुष्टि होती है।
पद्मपुराण के अन्तःसाक्ष्य के आधार पर ऐसा लगता है कि रविषेण -- ने दीक्षा लेने से पूर्व विलासी जीवन जिया था। सम्भव है यौवनावस्था में ही
उन्हें पत्नी-विरह सहन करना पड़ा हो, जिससे विरक्त होकर उन्होंने जिन-दीक्षा ली हो।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, रविषेण की एक ही कृति पदमपुराण' या 'पद्मचरित' आज उपलब्ध है। यह जैन रामकाव्य परम्परा का संस्कृत भाषा में लिखा गया प्रथम और प्रधान ग्रन्थ है। माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई से वी. नि. सं. 2454 में प्रकाशित 'पद्मचरितम्' (मूलभाग) के प्राक्कथन
में श्री नाथूराम प्रेमी ने लिखा है-"आचार्य रविषेण का यद्यपि इस समय केवल TE यही ग्रन्थ उपलब्ध है, परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि इसके सिवाय उनके 1 और भी कुछ ग्रन्थ होंगे, जिनमें से वरांगचरित का उल्लेख हरिवंश पुराण' के प्रारम्भ में इस प्रकार किया गया है
"वरांगेनेव सर्वावगैर्वराङ्गचरितार्थवाक् । कस्यनोत्पादयेद्गढमनुरागं स्वगोचरम्।।"
श्वे. सम्प्रदाय के आचार्य उद्योतनसूरि ने अपने 'कुवलयमाला' नामक प्राकृत ग्रन्थ में भी जो शक संवत् 700 (वि.सं. 835) की रचना है, रविषेण के पदमचरित और वरांगचरित' का उल्लेख किया है'जेहिं कए......(पूरी गाथा ऊपर देखें)
अर्थात जिसने रमणीय वरांगचरित और पदमचरित का विस्तार किया उस कवि रविषेण की कौन सराहना नहीं करेगा? (अर्थात् वे सभी के द्वारा प्रशसनीय हैं)
अभी तक इनके वरांगचरित का किसी भी पुस्तक भंडार में पता नहीं लगा है। 1 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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