________________
-
-
IPIPAR
LELH -1
-1
1
ALI
1 थे। सेना के कोलाहल से सिंह भयभीत होकर भाग जाते थे। बड़े-बड़े हाथी
वृक्षों के लट्टे उखाड़कर मार्ग में रुकावट पैदा करते थे। वनचर हाथियों की। रगड़ से छिटकी हुई वृक्षों की छाल देखकर हाथियों के शरीर का अनुमान करते थे। हाथी की गन्ध सूंघकर बिगड़ने वाले जंगली हाथियों को पकड़ने वाले योद्धाओं का शब्द चारों दिशाओं में हो रहा था। अन्न और वस्त्र से
युक्त सब शस्त्र हाथी, घोड़े, ऊँट, भैंसे, मेढे, बैल, रथ तथा गाड़ी आदि प्रमुख TE वाहनों पर लाद दिये गये थे। इस प्रकार की सेना जब समीपवर्ती हेमाङ्गद - देश में पहुँचने के लिए उद्यत हई तब शिल्पि समाज के प्रमुखों ने पर्णकुटीला बनाई। काष्ठागार के द्वारा सम्मानित गोविन्द महाराज ने उसमें प्रवेश किया।
उपर्युक्त वृत्तान्त के आगे सेना के पड़ाव का वर्णन मिलता है। उक्त वर्णन में घोड़े द्वारा जलाशयों का पानी पीना, हाथियों का बाँधा जाना, रसोइयों (पौरोगव) के द्वारा रसोईघरों में उपस्थित होना, वणिकों का बाजार में पहँचना. पानी के लिए स्त्रियों द्वारा कुयें या नदियों की खोज करना, ईंधन लाने वालों की ईंधन की खोज, स्नानानुलेपन के बाद वेश्याओं का आभूषण धारण करना, दम्पतियों द्वारा मार्ग की कथा की चर्चा करना, तरुण पुरुषों का स्त्रियों की गोद में थकान मिटाने के लिए शिर रखना, मालाकारों की स्त्रियों द्वारा मालायें Dथा जाना, दिशाओं का पंक्तिबद्ध सैनिकों से युक्त होना तथा गोविन्द महाराज
द्वारा काष्ठाङ्गार द्वारा उपहार में दिए गए घोड़ों और हाथियों का समूह देखा LE जाना तथा बदले में भेंट भेजना चित्रित किया गया है। युद्ध के समय महावत
और घुडसवार अधोवस्त्र पहनकर और शिरस्त्राण धारण कर तैयार हो जाते थे। चक्रव्यूह और पद्मव्यूह जैसे व्यूहों की रचना होती थी तथा धनुर्धारी धनुर्धारियों के साथ, महावत महावतों के साथ, घुड़सवार घुड़सवारों के साथ और रथारोही (स्यन्दनारोही) रथारोहियों के साथ युद्ध करते थे। गद्यचिन्तामणि के अष्टम लम्भ में (मंत्री आदि) मौल और पृष्ठबल (सहायक) सेना का उल्लेख किया गया है। शासन व्यवस्था-दुर्बल राजा के होने पर चोर, लटेरों वगैरह का भय हो जाता था। व्याधादि जंगली जातियाँ समीपवर्ती ग्रामों वगैरह से गोधनादि सम्पत्ति लेकर भाग जाती थीं अथवा सेना द्वारा मुकाबला करती थीं, पराक्रमी राजा ही इनको दबाने में समर्थ होता था और दुःखी प्रजा ऐसे ही राजा का स्मरण करती थी।
दुर्ग-आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा के लिए प्राचीन काल में दुर्ग बनाए जाते THथे। दुर्गों में भी गिरिदुर्ग (पहाड़ी दुर्ग) का विशेष महत्त्व था। क्षेमपुरी नामक -
नगर का वर्णन करते हुए गद्यचिन्तामणि में कहा गया है-यह पहाड़ी दुर्ग प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
-1-16
436