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स्त्री का चाँदी का कर्णाभरण था, जो काम के बाणों के साफ करने के लिए स्फटिक पाषाण से निर्मित शिला के एक खण्ड के समान था, कामदेव के अभिषेक के लिए निर्मित पूर्ण कलश के समान जान पड़ता था, सब मनुष्यों
को आनन्द उत्पन्न करने वाला था और राग रूपी राजा का मित्र था, ऐसा TE चन्द्रमा सुशोभित होने लगा। संसार का मध्य भाग चन्द्रमा की उन किरणों
के समूह से व्याप्त हो गया जो क्षीरसमुद्र के जलकणों के समान, कपूर की पराग के समान, चन्दनरस के समूह के समान, अमृत के फेनपिण्ड के समान, पारे के रस की धारा के समान, स्फटिक की धूलि के समान अथवा कामाग्नि की भस्म के समान जान पड़ती थी।
पुत्र के असानिध्य के कारण माता विजया की कैसी दशा हो रही थी, TE इसका वर्णन कवि ने बड़े मार्मिक ढंग से किया है
'मुषितामिव मोहेन, क्रीताभिव क्रशिम्ना, वशीकृतामिव शुचा दुःखैरिवोत्खातम्, व्यसनैस्विास्वादिताम्, तापैरिवापीडिताम्, चिन्तयेवाचान्ताम्, क्लेशैरिवावेशिताम्, अभाग्यैरियासंविभक्तां मातरमत्यादरमभ्येत्य प्रणनाम।'
उनकी वह माता ऐसी जान पड़ती थी मानों मोह से लुटी हुई हो, दुर्बलता से मानों खरीदी गई हो, शोक के द्वारा मानों वश में की गई हो. TE दुःखों के द्वारा मानों उखाड़ी गई हो, व्यसनों से मानों आस्वादित हो, सन्ताप
से मानों पीड़ित हो, चिन्ता से मानों आचान्त हो-चॉटी गई हो, क्लेशों से मानों युक्त हो और अभाग्य से मानों परिपूर्ण हो। सामने जाकर उन्होंने उस माता को बड़े आदर से प्रणाम किया।
गद्य चिन्तामणि, अष्टम लम्भ पृ. 310 रस योजना-गद्यचिन्तामणि तथा छत्रचूडामणि दोनों का प्रधान रस शान्त है। अन्य आठ रसों का यथावसर अच्छा प्रयोग हुआ है। उदाहरणार्थ सप्तम लम्भ में पुत्र मोह से ग्रस्त माता के सामने शरीर की बीभत्स स्थिति का वर्णन करते हुए विरक्त जीवन्धर कहते हैं
जो रस, रुधिर और अपवित्र वस्तुओं से भरा हुआ है, समस्त अपवित्रताओं का कुलगह है, बिना विचार किये ही रम्य जान पड़ता है और क्षण क्षण में नष्ट हो रहा है, ऐसे शरीर नामक परिपुष्ट मांस के पिण्ड को देखकर क्यों अत्यन्त मोहित हो रही हो। देखो, हम लोगों के देखते देखते जो नष्ट हो जाता है. केवल हड्डियों का पिंजड़ा है, चमड़े का यन्त्र है, नशों
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1 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ -
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