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454545454545454519974995749497454545 卐 जिस समय वे अन्तर्मुहुर्त काल तक कृष्टिगत योगवाले होते हैं, उसी समय LE सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यान को ध्याते हैं और इस तेरहवें गुणस्थान के अंतिम LE
समय में कृष्टियों के असंख्यात बहुभाग का घात करते हैं। इस प्रकार योग निरोध हो जाने पर आयु की स्थिति के समान स्थिति वाले अघातिया कर्म हो जाते हैं। फिर वे भगवान अयोगकेवली बनकर अन्तर्मुहर्त काल तक शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं। इस अवस्था का काल पंच हस्व अक्षरों के उच्चारण-प्रमाण हैं। उस समय वे अयोगि-जिन समुच्छन्नाक्रियानिवृत्तिध्यान को ध्याते हैं और शैलेशी काल नष्ट हो जाने पर सर्व कर्मों से विप्रमुक्त होकर वे एक समय में सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं।
इस प्रकार संसार परिभ्रमण से व्याकुल संसारी-जन जो सच्चे व - अविनाशीक सुख की खोज में हैं, परद्रव्यों, परजीवों व परभावों से पृथक् निज
स्वरूप जानकर/मानकर आत्मावलम्बी बनते हैं। वे ही वस्तुतः संसार परिभ्रमण से मुक्त होकर उस श्रद्धेय आत्मतत्व को प्राप्त करते हुए अनन्तकाल तक अविनाशीक सुख का अनुभवन करते हैं। ऐसा जानकर हमें कषायों को सतत घटाने के प्रति उन्मुख होना चाहिए, यही आचार्य का उपदेश है. यही आदेश है। रीडर एवं अध्यक्ष अर्थशास्त्र विभाग -डा. सुपार्श्व कुमार जैन
16, जैन कालिज क्वाटर्स 1 नेहरू रोड, बड़ौत
संदर्भ 1. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-1, पृ. 331-332 2. वही, पृ. 332 3. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा 2130
जयधवल, भाग 1, पृ. 88 5. कसायपाहुणसुत्त, गाथा-2
वही, गाथा-1 7. वही, गाथा 14185-86, पृ. 29 8. जयधवल, भाग-1, पृ. 183 9. कसायपाहुणसत्त, गा. 13-14 10. वही, स्थितिक अधिकार, गा. 4-11. पृ. 235-236
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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