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वीणा बजाना सुनकर तीव्र हर्ष से स्वयंवर सभा के समीपवर्ती व कलिकाओं के बहाने मानों रोमांच धारण कर रहे थे। वादीभसिंह का काव्यवैभव
'ओजः समासभूयस्त्वमेतद्गद्यस्य जीवितम्' अर्थात् समास बहल ओज TE गुण गद्य का जीवन है। इस दृष्टि से वादीभसिंह ने गद्यचिन्तामणि में समास - बहुल श्लेषमयी शैली को अपनाया है। इसके साथ-साथ उन्होंने सुललिता
पदों से युक्त प्रसाद गुणमयी शैली को भी प्रस्तुत किया है। उनकी शैली + TE बाणभट्ट से मिलती है। हर्षचरित की प्रस्तावना में बाण ने अपनी शैली के TE 1 आदर्श को प्रस्तुत किया है
नवोऽयों जातिरग्राम्या श्लेषोऽश्लिष्टः स्फुटो रसः। विकटाक्षरबन्धश्च कत्स्नमेकत्र दुष्करम।। -हर्षचरित, प्रस्तावना, 8
मौलिक अर्थ, सुरुचिपूर्ण, स्वाभावोक्ति, सरलश्लेष, स्पष्ट प्रतीयमान रस 4 तथा दृढ़बन्ध पदावली का एकत्र सन्निवेश दुष्कर है।
वादीभसिंह ने इस दुष्कर कार्य को किया है। उन्होंने पाञ्चाली रीति को अपनाया है। सरस्वती कण्ठाभरण में पाञ्चालीरीति का लक्षण इस प्रकार दिया है
'शब्दार्थयोः समो गुम्फः पाञ्चालीरीतिरिष्यते। अर्थात् शब्द और अर्थ का समान गुम्फन पाञ्चाली रीति मानी जाती है।
वादीभसिंह ने विषय के अनुरूप शब्दों का चयन किया है। गद्यचिन्तामणि में मरुस्थल वर्णन में कवि ने कर्णकटु शब्दों का और समासबद्ध पदावली का प्रयोग किया है
ततश्चाग्रतः क्वचिदुग्रतरोष्मदुष्प्राये विस्फुलिङ्गायमान पां सूत्करे करिनिष्ठभूतकरशीकरावशिष्ट पयासि निःशेषपर्णक्षयनिविशेषाशेष विटपिनि निवनिखिलदल निर्मितमर्मरखभरित हरिति मरुत्सखब्रह्मचारि मरुति करेणुतापहरण कृते निजकायछाया प्रदायिदन्तिनि वारण शोषितपारणा परायणपिपासातु-राकेसरिण्युदन्यादैन्यप्रपञ्चवञ्चित हरिणगण लिह्यमानस्फटिक हर्षाद.....।'
-गद्य चि. पंचमलम्भ, पृ. 227 लक्ष्मीवर्णन के प्रसङ्ग में वादीभसिंह ने सरल और भावप्रवण शैली को अपनाया है
"इयं हि पारिजातेन सह जाताऽपि लोभिनां धौरेयी, शिशिरकरसोदराऽपि
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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