________________
LSLSLSLS
45454545454545454545454545454545
+का विसंयोजन करता है। यहां अन्तरकरण नहीं होता। फिर अन्तर्मुहुर्त विश्राम + TE कर पुनः तीनों करण करके एक अन्तर्मुहूर्तकाल तक दर्शनमोह को उपशमाता
है। इसके भी अन्तरकरण नहीं होता। यदि क्षायिकसम्यग्दृष्टि है तो द्वितीयोपशम नहीं करना पड़ता। कालक्षय से पतमान-उपशामक जिस क्रम से चढ़ा था, उसी क्रम से गिरता है। किन्तु आरोहक के नवीन बंधने वाले कर्मों की उदीरणा बंधावली के छह आवलीकाल के बाद ही होती थी, पतमान-उपशामक के यह नियम न होकर बंधावली के बाद ही बंधे हए कर्मों की उदीरणा होने लगती है-यह नियम हैं। पतमान-उपशामक उपशमकाल के भीतर असंयम, संयमासंयम और छह आवलियों के शेष रहने पर सासादनसम्यकत्व को भी प्राप्त हो सकता है। यदि सासादन में मरण करता है तो नियम से देवगति में ही जाता है क्योंकि पूर्व में अन्य आयु का TE बंध करने वाला श्रेणी आरोहण नहीं कर सकता-ऐसा नियम है।
क्षपक श्रेणी पर आरोहण करने वाले की प्रक्रिया का विशद वर्णन चारित्र-मोहक्षपणा-अर्थाधिकार में किया गया है। चारित्रमोह का क्षय कर देने -1 पर शेष घातिया कर्मों का अभाव ध्यान के बल पर स्वतः हो जाता है। इसके ।
बाद आचार्य महाराज ने पश्चिमस्कन्ध अर्थाधिकार भी लिखा है जिसमें केवलीभगवान की समुदघातगत क्रियाओं का वर्णन किया गया है। सयोगी जिन आयुकर्म के अन्तर्मुहूर्तमात्र शेष रह जाने पर समुद्धात करने के प्रति अभिमुख होते हैं, जिसे आवर्जितकरण कहते हैं। फिर प्रथम समय में दण्ड समुद्घात करते हैं जिसमें कर्मों की स्थिति के असंख्यात बहुभागों तथा अवशिष्ट अनुभाग के अप्रशस्त अनुभाग के अनन्त बहुघात का घात करते हैं फिर दूसरे समय में कपाट-समुदघात करते हैं जिसमें अघातिया कर्मों की शेष स्थिति के असंख्यात और अवशिष्ट अनुभाग सम्बन्धी अप्रशस्त अनुभागों -
के अनन्त बहुभाग का घात करते हैं। फिर तीसरे समय में प्रतरसमुदघात LF में कपाट-समुद्घात के समान ही निर्जरा करते हैं। चौथे समय में लोकपूरण TH समुद्घात करने पर अघातिया कर्मों की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति को स्थापित 51 करते हैं जो आयुकर्म की स्थिति से संख्यातगुणी हैं। फिर आत्मप्रदेशों को LE संकोच करते हैं जिसके प्रथम समय से लेकर आगे के समयों में शेष अन्तर्मुहर्त -
प्रमाण स्थिति के संख्यात और अनुभाग के अनन्त बहुभाग का नाश करते - 51 हैं। समुद्घात के उपसंहार के अन्तर्मुहुर्त बाद योगों का निरोध करते हैं। प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
396 -1