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51 त्वारिंशत्पदनामसत्त्वप्ररूपणद्वारेणाशेष विनयजन निकुटम्ब । सम्बोधनार्थ LE श्रीमन्नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक चक्रवर्ती समस्तसैद्धान्तिकजन प्रख्यातविशदयशाः
विश्सालमतिरसौ भगवान्....गोम्मट् सारपंचसंग्रह प्रपंचमारचयंस्तदादौ निर्विघ्नतः 51 शास्त्रपरिसमाप्तिनिमित्त.....देवताविशेष. नमस्करोति।"
उपरिकथित गोम्मटसार की संस्कृत टीका की उत्थानिका में जो संस्कृतगद्य का उल्लेख किया गया है उससे यह वृत्त ज्ञात होता है कि 7 गोम्मटसार ग्रन्थ की रचना चामुण्डराय के प्रश्नानुसार सम्पन्न हुई है। इस र विषय में निम्नलिखित जनश्रुति प्रसिद्ध है।
एक समय श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती षट्खण्डागम-धवलादि 7 महासिद्धान्त ग्रन्थों में से किसी एक सिद्धान्त ग्रन्थ का स्वाध्याय कर रहे थे।
उसी समय गुरु श्री नेमिचन्द्राचार्य का दर्शन करने के लिये श्रीचामुण्डराय
आये। शिष्य को आते हए देखकर नेमिचन्द्राचार्य ने स्वाध्याय करना बन्द 47 कर दिया। जब चामुण्डराय गुरु जी को नमस्कार कर बैठ गये, तब उन्होंने
पूछा, हे गुरुवर! आपने स्वाध्याय स्थगित क्यों कर दिया? तब गुरुवर्य ने उत्तर दिया कि श्रावक को इन सिद्धान्तग्रन्थों के श्रवण करने का अधिकार नहीं है। यह सुनकर चामुण्डराय ने कहा, गुरुवर्य! हम श्रावकों को इन महान् ग्रन्थों का ज्ञान कैसे हो सकेगा कृपाकर कोई उसा उपाय कीजिये कि जिससे हम श्रावक भी इन महान शास्त्रों का परिज्ञान कर सकें यह सुनते ही श्रीनेमिचन्द्राचार्य ने उक्त धवलादि महान् ग्रन्थों का सारतत्त्व लेकर गोम्मटसार ग्रन्थ की रचना को 11वीं शती में पूर्ण कर दिया। इस ग्रन्थ का दूसरा नाम 'पंचसंग्रह' भी है कारण कि इस ग्रन्थ में महाकर्मप्राभृत के सिद्धान्त सम्बन्धी (1) जीवस्थान, (2) क्षुद्रबन्ध, (3) बन्धस्वामी, (4) वेदनाखण्ड, (5) वर्गणाखण्ड इन पंचविषयों का वर्णन किया गया है। मूलग्रन्थ शौर सेनीप्राकृत में लिखा गया है । यद्यपि इस ग्रन्थ के मूल लेखक श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती
ही हैं तथापि कहीं-कहीं पर कोई कोई गाथा श्रीमाधवचन्द्र विद्यदेव ने भी - लिखी हैं, यह वृत्त टीका में लिखी हुई गाथाओं की उत्थानिका के पठन से - ही ज्ञात होता है। माधवचन्द्र विद्यदेव, श्रीनेमिचन्द्र सि. च. के प्रधान शिष्यों
में एक थे। ज्ञात होता है कि तीन विद्याओं के अधिपति होने के कारण ही आपको विद्यदेव का पद मिला होगा। इससे यह भी अनुमान कर लेना चाहिये कि श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की विद्वत्ता कितनी असाधारण थी।
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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