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आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रचर्ती नन्दिसंघ के देशीय गण के आचार्यों में से एक प्रमुख आचार्य थे। विक्रम की नवमी शती में पटखण्डागम की धवला और जयधवला की टीकाओं के सजन के अनन्तर इनका अध्ययन अध्यापन देश में प्रारंभ हुआ। इन सिद्धान्तग्रन्थों के पारगामी विद्वान् एक उच्चकोटि के मनीषी देश में मान्य होने लगे। जब कुछ समय के पश्चात् समुद्र जैसे गम्भीर ये सिद्धान्त ग्रन्थ कठिन प्रतीत होने लगे तब इनके सारभाग को सरल एवं संक्षिप्त रूप से सृजन करने के लिये नेमिचन्द्राचार्य ने पुरुषार्थ किया। फलतः गोम्मटसार के नाम से विरचित इन ग्रन्थों के कारण ही नेमिचन्द्र को सिद्धान्तचक्रवर्ती' का पद प्रदान किया गया।
सिद्धान्तशास्त्र के पारगामी विज्ञ को सिद्धान्तचक्रवर्ती की उपाधि से F- विभूषित करने की प्रथा उस समय से पूर्व भी भारत में प्रचलित थी। आचार्य
वीरसेन ने स्वरचित जयधवला की प्रशस्ति में दर्शाया है कि भरतचक्रवर्ती की आज्ञा के समान जिनकी भारती षट्खण्डागम के अनुशीलन में स्खलित
नही हुई। अतः अनुमान किया जाता है कि वीरसेन स्वामी के समय से ही - सिद्धान्तग्रन्थों के पारगामी विज्ञ को सिद्धान्तचक्रवर्ती' का पद दिया जाने लगा।
था। नेमिचन्द्राचार्य निश्चय ही सिद्धान्तग्रन्थों के पारगामी मनीषी थे। इस 51 कारण ही आपने षट्खण्डागम (धवलाटीका) का अनुशीलन कर गोम्मटसार E ग्रन्थ और जयधवला टीका का परिशीलन कर लब्धिसार ग्रन्थ का सृजन किया है।
आपने गोम्मटसार कर्मकाण्ड में भी इसी विषय का संकेत किया हैजह चक्केणयचक्की, छक्खण्डं साहियं अविग्ण। तह मइ-चक्कणमया, छक्खण्डं साहियं सम्म।।
(गो. कर्मकाण्ड-गाथा 397) IF सारांश
जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने चक्ररत्न से भरतक्षेत्र के छह खण्डों को निर्विघ्नरूप से अपने आधीन करता है, उसी प्रकार मैंने (नेमिचन्द्र ने) अपनी TE बुद्धि रूपी चक्ररत्न से षट्खण्डों (षट्खण्डागम सिद्धान्त) को सम्यक्रीति से
पारायण किया है। प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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