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54564574545454545454545454545455 ॐ वर्णित है।.दर्शनमोहोपशामक संज्ञी, पंचेन्द्रिय और पर्याप्तक तो होना ही
चाहिये। इसके अतिरिक्त निजशुद्धात्मा को ध्येय बनाकर अन्तर्मुहूर्त पूर्व से 1E - ही अनन्तगुणी विशुद्धि से विशुद्ध होता हुआ आता है और यह स्वाभाविक :भही है क्योंकि वह अतिदुस्तर, मिथ्यात्व गर्त से निज उद्धारक लब्धियों की - सामर्थ्य से समन्वित, प्रति समय संवेग-निर्वेद द्वारा हर्षातिरेक से युक्त और
अलब्धपूर्व सम्यकत्वरत्न की प्राप्ति का इच्छुक होता है। चारों कषायों में से कोई कषाय हीयमान और कोई सी शुभलेश्या वर्धमान होती है उसके कोई एक वेद, चारों मन व चारों वचन योगों में से कोई एक मनोयोग व वचनयोग तथा औदारिक या वैक्रियक काययोग होता है। उपशमन के प्रारम्भ में साकारोपयोग होता है किन्तु निष्ठापक व मध्यवर्ती जीव साकारोपयोगी भी हो सकता है और निराकारापयोगी भी हो सकता है। अनादि मिथ्यादृष्टि के
सम्यक्त्व का लाभ सर्वोमशम से ही होता है किन्तु अनादि-सम-मिथ्यादृष्टि - भी सर्वोपशम से सम्यक्त्व की प्राप्ति करता है। सम्यक्त्व से च्युत हो मिथ्यात्व -
को प्राप्त होकर दोनों प्रकृति के उद्वेलक अनादिसम-सादि-मिथ्यादृष्टि जा कहलाते हैं। जो पल्योपम के असंख्यातवें काल के अंदर अर्थात् दोनों प्रकृति
की उद्वेलना न कर जल्दी ही बारम्बार सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाले जीव : देशोपशम से सम्यक्त्व की प्राप्ति करता है। दर्शनमोह का उपशामक जीव निर्व्याघात होता है और उस समय उसके मिथ्यात्ववेदनीयकर्म का उदय रहता है और तन्निमित्तक बंध भी होता रहता है। उपशमसम्यक्त्व का काल समाप्त होने पर यदि सम्यक्त्वप्रकृति उदय में रहती है। तो वेदकसम्यग्दृष्टि, मिश्रप्रकृति के उदय में आने पर सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यात्व के उदय - में आने पर मिथ्यादृष्टि बन जाता है। यदि उपशमसम्यक्त्वकाल में एक समय
से छह आवलीकाल शेष रहने पर अनन्तानुबंधी किसी कषाय का उदय आ जाये तो वह सासादनसम्यग्दृष्टि कहलाता है। "सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का तो नियम से श्रद्धान करता ही है किन्तु कदाचित अज्ञानवश सदभत अर्थ को स्वयं नहीं जानता हआ गरु के नियोग से असदभत अर्थ का भी श्रद्धान करता है। किन्तु अविसंवादी सूत्रान्तर से समझने/समझाये जाने पर भी वह यदि अपने दुराग्रह को नहीं छोड़ता है तो वह जीव तत्काल से मिथ्यादृष्टि हो जाता है। यह इस अधिकार का संक्षिप्त है। विशेष जिज्ञासुओं के लिए जयधवल पुस्तक 12 और 13 का अध्ययन करना चाहिये। प्रशमनूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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