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में निषिक्त कर दिये गये थे अपवर्तना या उदवर्तना को प्राप्त न होकर सत्ता
में तदवस्थ रहते हुए ही यथाक्रम से उस ही स्थिति में होकर उदय दिखाई - दे, उसे यथानिषेक स्थितिक कहते हैं तथा 4. जो कर्म-प्रदेशाग्र बंधने के अनन्तर - FI जहां कहीं भी जिस किसी स्थिति में होकर उदय को प्राप्त होता है, उसे 51 - उदयस्थितिक कहते हैं।०।" अनन्तर इनके स्वामित्व का कथन किया गया है। 1E
मिथ्यात्व आदि परिणामों के वश से कर्मयोग्य पौदगलिक स्कन्धों का कर्म रूप परिणत होकर आत्मप्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाह रूप से संश्लेष
सम्बन्ध को प्राप्त होना बन्ध है । बन्ध अर्थाधिकार में एक प्रश्नात्मक गाथा आई - है जिसका विशद वर्णन जयधवल में आचार्य वीरसेनस्वामी ने किया है।
संक्रम-अर्थाधिकार में बताया गया है कि मूल प्रकृतियों का तो परस्पर TE में संक्रम नहीं होता किन्तु उनकी उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण होता है। संक्रमण - नाम बदलने-परिवर्तित होने का है। मोहनीय की दोनों दर्शन व चारित्र नामका
उत्तरप्रकृति मूल के समान मानी गई है। इसी प्रकार आयुकर्म की उत्तरप्रकृति TE मूल के समान है अर्थात् इनमें भी परस्पर संक्रमण नहीं होता। कर्मसंक्रमTE - प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग की अपेक्षा चतुर्विध है किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ ।
में अन्य सात कर्मों के संक्रम का अध्ययन न कर मोहनीय की 28 प्रकृतियों
की अपेक्षा अध्ययन किया गया है। यह संक्रमण कर्म की सजातीय उत्तरप्रकृति : ॥ में हो तो प्रकृति-संक्रम कहते हैं। जैसे साता का असाता रूप या सम्यक्त्व :
का मिथ्यात्व रूप या अनन्तानबंधी का अप्रत्याख्यान रूप हो जाना आदि। कर्मों TE की स्थिति का संक्रमण अपवर्तना, उद्वर्तना और प्रकृतिरूप परिणमन से होता।
ा है ऐसा उत्तरप्रकृतियों में होता है किन्तु मूल प्रकृतियों में अपवर्तना और 15 उदवर्तना रूप संक्रमण ही होता है। इसी प्रकार अनुभाग और प्रदेश संक्रमण
के विषय में जानना चाहिये। इन सबका विशद वर्णन उपर्युक्त स्वतंत्र अधिकारों में किया गया है।
वेदक अर्थाधिकार में उदय और उदीरणा नामक दो अनुयोगद्वारों के माध्यम से मोहनीय कर्म के वेदन का वर्णन किया गया है। कर्म का परिपाक काल में आकर फल देना उदय और परिपाक काल के पूर्व ही तपादि के द्वारा - कर्म का उदय में आकर फल देना उदीरणा कहलाता है।
उपयोग अर्थाधिकार में एक जीव का किस कवाय में उपयोग कितने 21 काल तक होता है, सो जघन्य व उत्कृष्ट अन्तर्मुहुर्त है। इनका अल्पबहुत्व।
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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