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15454545454545454545454545454545 51 हैं। नव नोकषायों में से अरति, शोक, भय व जुगुप्सा द्वेषरूप तथा हास्य, रति
व तीनों वेद प्रेय रूप हैं। कमास्रव के निमित्त होने पर भी वर्तमान व भविष्य काल की अपेक्षा द्वेष व प्रेय रूप कहा गया है। व्यवहारनय से लोभकषाय प्रेयरूप व शेष द्वेष रूप ही हैं। स्त्रीवेद एवं पुरुषवेद प्रेयरूप व शेष द्वेषरूप हैं। ऋजसत्रनय की दृष्टि में क्रोध द्वेषरूप, लोभ प्रेयरूप तथा मान और माया नो द्वेष व नो प्रेय रूप हैं क्योंकि इनके करने से वर्तमान में न तो अंगसंताप, चित्तवैकल्य आदि होता है और न हर्ष की उत्पत्ति देखी जाती है। शब्दनय से चारों कषाय द्वेषरूप हैं तथा प्रथम तीनों कषाय नोप्रेय व लोभ कथंचित प्रेय है। यह महाधिकार रूप में वर्णित है जिसमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश, क्षीणाक्षीण और स्थितिक ये छह अर्थाधिकार हैं। किन्तु इनमें अधिकार संख्या + नहीं दी हई है जबकि गाथा 13-14 में स्थिति व अनुभाग को क्रमशः दूसरा व तीसरा अर्थाधिकार कहा गया है। फिर भी इनका वर्णन स्वतंत्र अधिकार के सदृश किया गया है।
कर्म प्रकृति तो आठ हैं किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में एक मोहनीय कर्म के - भेद-उत्तरभेदों का वर्णन किया गया है। स्थितिविभक्ति में मोहनीय कर्म की
28 भेदों की काल-मर्यादा को, अनुभागविभक्ति में उनके फल देने की शक्ति को तथा प्रदेशविभक्ति में मोहनीयकर्म के हिस्से में आने वाले कर्म-प्रदेशों को वर्णित किया गया है। कर्मों की स्थिति व अनुभाग की वृद्धि को उत्कर्षण, घटने को अपकर्षण, अन्य उत्तर रूप प्रकृति रूप परिणम जाने को संक्रमण, परिपाक काल पाकर फल देने को उदय और परिपाक काल के पूर्व तपादि द्वारा उदय
में ला देने को उदीरणा कहते हैं। जो कर्म-प्रदेश उत्कर्षण, अपकर्षण संक्रमण 4. और उदय के योग्य होते हैं, उन्हें क्षीणस्थितिक और जो अयोग्य होते हैं उन्हें
अक्षीणस्थितिक कहते हैं। अनेक प्रकार की स्थितियों को प्राप्त होने वाले
प्रदेशाग्रों अर्थात कर्मपरमाणओं को स्थितिक या स्थिति-प्राप्तक कहते हैं। यह LE चतुर्विध है-1. जो कर्म-प्रदेशाग्र बन्ध समय से लेकर कर्मस्थितिप्रमाण काल Hतक सत्ता में रहकर अपनी कर्म-स्थिति के अंतिम समय में उदय में दिखाई
देता है, उसे उत्कृष्टस्थितिक कहते हैं 2. जो कर्म प्रदेशाग्र बंधने के समय
में ही जिस स्थिति में निषिक्त कर दिये गये थे या अपवर्तित कर दिये गये Hथे, वे उस की स्थिति में होकर यदि उदय में दिखाई देते हैं तो उन्हें ।
निषेकस्थितिक कहते हैं। 3. जो कर्म प्रदेशाग्र बन्ध के समय जिस स्थिति प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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