________________
559455664414514614545454545454545
1 4. आचार्य गुणधर के समय में पूर्वो के आंशिक ज्ञान में उतनी कमी 57 - नहीं आई थी जितनी कमी आचार्य धरसेन के समय में आ गई थी।
5. आचार्य गुणधर की रचना अति-संक्षिप्त, बीजपद वाली, अतिगहन और सारयुक्त है जिससे उनके सूत्रकार होने में कोई संदेह ही नहीं रहता।
6. समय की दृष्टि से आचार्य गुणधर आचार्य धरसेन की अपेक्षा पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं।
इस प्रकार आचार्य गुणधर आचार्य धरसेन की अपेक्षा पूर्ववर्ती, अधिक ज्ञानी और श्रुतधर-आचार्य सिद्ध होते हैं। समय निर्धारण-श्री लोहाचार्य आठ अंग के धारी आचार्य थे। इतिहास बद्ध सूची के अवलोकन से ज्ञात होता है कि इनके बाद एक अंगधारी विनयदत्त श्रीदत्त नं.1, शिवदत्त और अर्हद्दत्त ये चार आचार्य हुए जो समकालीन थे। इनके बाद अर्हबलि नामक आचार्य एक अंग के अंशधारी थे जो वीर निर्वाण के बाद 565-593 में हुए। इन्होंने पंचवर्षीय युगप्रतिक्रमण के समय दक्षिण देश की महिमा नगरी में एक महान यति-सम्मेलन किया था। उसी समय साधुओं के मध्य पक्षपात की भावना से अवगत होकर उन्होंने नन्दि, वीर, अपराजित, गुणधर, सिंह आदि नामों से अनेक संघ स्थापित किये थे जिससे पारस्परिक वात्सल्यभाव में कमी न आ सके। तात्पर्य यह है कि आचार्य गुणधर उस समय तक इतने ख्यातिप्राप्त हो चुके थे कि उनके नाम पर ही संघ का नामकरण किया गया। इससे आचार्य गुणधर आचार्य अर्हबलि के पूर्ववर्ती नहीं तो समकालीन अवश्य ठहरते हैं।
यदि यह माना जाये कि उस यति सम्मेलन में शामिल होने वाले = साधओं में आचार्य गुणधर नहीं बल्कि उनके संघ के यतिगण शामिल हए ।
थे, तो आचार्य गुणधर आचार्य अर्हदबलि से पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। डा. नेमिचन्द्रशास्त्री ने उनकी ख्याति प्राप्त करने में सौ वर्ष का समयान्तराल मानकर वीर निर्वाण सं. 465 अर्थात् वि. पूर्व प्रथम शताब्दी का स्वीकार किया
है। इस प्रकार आचार्य गुणधर का समय आचार्य धरसेन से दो सौ वर्ष पूर्व -1 ठहरता है। 15 आचार्य गुणधर को पेज्जदोसपाहुड का ज्ञान था जिसका उपसंहार
उन्होंने 180 गाथाओं में किया था तथा जिसका पठन-पाठन मौखिक रूप से FI कितनी ही पीढ़ियों तक चलता रहा, जो परम्परा से आर्यमा एवं नागहस्ती -
- 1.प्रसममूर्ति आचार्य शान्तिसागर मणी स्मृति-ग्रन्थ
387
-
-
-
387
TLF457457
PIPI
L