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1 जैन साहित्य में गणित के स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में महावीराचार्य के - गणितसार संग्रह का नाम आता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि इसके -
पूर्व के ग्रन्थों में गणित का विवेचन नहीं है। श्वेतांबर आगम ग्रंथ में प्रमाण
(माप) के रूप में चतुर्विध मानों का और दस प्रकार के संस्थानों का उल्लेख TE पाया जाता है। 'अनुयोग द्वार सूत्र में तो प्रमाणों का विस्तृत विवरण है। इनमें 1Pा गणितीय, बौद्धिक एवं भावप्रमाण भी समाहित हैं। यतिवृषभाचार्य की
त्रिलोकप्रज्ञप्ति में भी अंकगणित, बीजगणित तथा क्षेत्रमिति का पर्याप्त विवरण पाया जाता है। यह माना जाता है कि महावीराचार्य 850 ई. में विद्यमान थे। इस आधार पर वीरसेनाचार्य उनके वरिष्ठ समकालीन प्रतीत होते हैं। इसलिये उन्होंने श्री वीरसेन स्वामी के गणित को विकसित किया होगा, ऐसा सोचना
अनुपयुक्त नहीं होगा। फिर, यह तो सभी स्वीकार करते हैं कि नेमिचंद्र आचार्य -1 ने धवला के गणित को विकसित किया और उनका अनुसरण उत्तरवर्ती 4 ग्रंथकारों ने किया। आचार्य वीरसेन के पर्याप्त पूर्ववर्ती ग्रंथकार यतिवृषभ (500'
ई०) के गणित को उन्होंने कितना विकसित किया, यह तत्व अवश्य उद्धरणीय
है। वस्तुतः आठवीं सदी के उत्तरार्ध से नवमी सदी के अंत तक का काल LF जैन साहित्य की दृष्टि से राष्ट्रकूट क्षेत्र के लिये स्वर्णकाल माना जा सकता।
है। जब पुराणकार जिनसेन, प्राणावायी उग्रादित्य, व्याकरणविद शाकटायन, टीकाकार वीरसेन तथा जिनसेन जैसे आचार्य समकालिक रहे।
गणित की उपयोगिता के आधार पर षट्खंडागम के समान आगमतुल्य ग्रंथों में गणित-विद्या का तत्कालीन विवरण एवं अभ्यास दिया गया है। गणित ज्ञान की ये सूचनायें ऐतिहासिक दृष्टि से तो महत्वपूर्ण हैं ही, क्योंकि इनके
आधार पर इन ग्रंथकारों के समय के गणित-विज्ञान की स्थिति का पता चलता ना है। इसके साथ ही, ये सूचनायें इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं कि इनके ।
आधार पर गुणस्थान एवं मार्गणाओं के अंतर्गत जीवादि तत्त्वों एवं कर्म सिद्धान्त की विवेचना की गई है जो जटिल होते हए भी प्रामाणिक वोधगम्यता की श्रेणी में आ जाती है। वस्तुतः समुचित गणितीय प्रक्रियाओं के बिना इनका समझना, कठिन ही था। इन ग्रंथों के सैद्धान्तिक एवं गणितीय विवेचनों में
जैन समुच्चय एवं राशि सिद्धान्त का मूल पाते हैं। डा0 सिंह के अनुसार, किसी 4 भी ग्रंथ में वर्णित सिद्धान्त को ग्रंथकार के समय तक विकसित होकर लिखित
रूप में आने तक दो-तीन सौ वर्ष लग जाते हैं। इस आधार पर षट्खंडागम। वधवला में वर्णित विषयवस्तु का विकास 0-400 ई0 के बीच का होना चाहिये। प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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