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21 में शुद्धात्मा का रागरहित अनुभव होता है। इसके धारक मुनि हो सकते हैं,
गृहस्थ नहीं। इसी से मुनि अविलम्ब केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। इसमें
निर्विकल्पता होती है। वीतराग चारित्र का अविनाभावी है। इसमें ध्यान-ध्याता57 ध्येय, प्रमाण-नय-निक्षेप सब विलीन हो जाते हैं।
जो लोग विषय कषायों में साक्षात् प्रवर्तन करते हुए अपने को भ्रम से शुद्धोपयोगी मान लेते हैं उनका अकल्याण ही है। वर्तमान में मुनिराज तक उस अनुपम भाव को प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं तो गृहस्थ को उसका पात्र कहना आगम का व साधु का अवर्णवाद है। प्रवचनसार में आ. कुन्दकुन्द ने स्पष्ट रूप से लिखा है :
सुविदिदपयत्थ सुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवजोगोति।।14।।
-भली प्रकार जान लिया है पदार्थों को और सूत्रों को जिसने, जो 4 संयम-तप से युक्त और वीतरागी है, जिसे सुख-दुख समान हैं, वह श्रमण TE (मुनि) शुद्धोपयोगी कहा गया है।
श्रमणों के दो भेदों का वर्णन प्रवचनसार में है। 1. शुद्धोपयोगी 2. शुभोपयोगी।
समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होंति समयम्हि। तेसिं सुद्धवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा।।24511
गृहस्थों के उपरोक्त दो भेद कहीं भी वर्णित नहीं हैं। वह तो अधिकतम TE शुभोपयोगी हो सकते हैं। उपरोक्त गाथा में शुभोपयोगी भी मुनि हैं और वे - गृहस्थ द्वारा पूज्य हैं। आ. कुन्दकुन्द ने गाथा नं. 11 में शुभोपयोगी मुनि को भी धर्म परिणत कहा है। देखिए :
धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोग जुदो। पावदि णिव्याणसुहं सुहोवजुतो य सग्गसुहं।।11।। उन्होंने वीतरागचर्या के साधन के रूप में सरागचर्या की पुष्टि भी की है। "दंसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं। चरिया हि सरागाणं जिंणिद पूजोवदेसो य।।248।
दर्शन-ज्ञान का उपदेश, शिष्यों का ग्रहण और उनका पोषण तथा - जिनेन्द्र भगवान की पूजा का उपदेश सराग चारित्र के धारी साधुओं की चर्या
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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