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अपाकुर्वन्ति यद्वाथः कायवाचिचसम्भवम् ।
कलङ्कमङ्गिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ।।1/15 पाण्डवपुराण
अर्थात् जिनकी शास्त्र पद्धति प्राणियों के शरीर, वचन और चित्त के
सभी प्रकार के मल को दूर करने में समर्थ है, उन देवनन्दी आचार्य को मैं
प्रणाम करता हूँ ।
अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शान्ति, परदोष चिन्तन विरक्ति, प्राणियों पर दया, निर्लोभता, मृदुता, शीलवंतता, अचंचलता, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, निरभिज्ञानता, निर्ग्रन्थता आदि गुणों के अधिष्ठाता आचार्य पूज्यपाद मूलसंघ के अन्तर्गत नन्दिसंघ बलात्कार गण के पट्टाधीश थे। इनका गच्छ 'सरस्वती' नाम से विख्यात था।
दर्शन, तर्क, काव्य, सिद्धान्त, अध्यात्म आदि विविध विषयों के उद्भट मनीषी पूज्यपाद का कृतित्व सम्पूर्ण अध्येताओं के लिए श्रद्धास्पद है। इनका व्यक्तित्व किंवदन्तियों और भक्तिवश लिखे आख्यानों से घिरा हुआ है। इन्हीं का आश्रय लेकर माता, पिता, कुल, स्थान आदि का वर्णन प्रस्तुत करना शक्य है ।
चन्द्रय्य नामक कन्नड़ भाषा के काव्यकार द्वारा रचित "पूज्यपादचरिते" ग्रन्थ में लिखा है कि कर्णाटक प्रदेशस्थ कोले नामक ग्राम के निवासी ब्राह्मणवर्ण के माधवभट्ट और श्रीदेवी के यहाँ अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न तेजस्वी बालक ने जन्म लिया । ज्योतिषियों ने जिसे त्रिलोक पूज्य बताया पूज्यपाद नाम रखा। माधवभट्ट ने अपनी सहधर्मिणी के अनुरोध पर जैन धर्म स्वीकार किया था। श्रीदेवी के भाई का नाम पाणिनि था उसे भी जिनधर्म अंगीकार करने की प्रेरणा दी किन्तु वह जैनधर्म के प्रति आकृष्ट न होकर मुण्डीकुण्ड ग्राम में वैष्णव संन्यासी हो गया था। पूज्यपाद की कमलिनी नामक छोटी बहन हुई, वह गुणभट्ट को व्याही गई। कमलिनी और गुणभट्ट के यहाँ नागार्जुन नामकपुत्र हुआ | 2
पूज्यपाद बाल्यकाल से ही जिनधर्म से प्रभावित थे, उनके परिणाम निर्मल थे दूसरे जीवों के दुःखों से स्वयं को दुःखी अनुभव करते थे। इसीलिए एक दिवस सांप के मुंह में फंसे मेंढक को देखकर पूज्यपाद को वैराग्य हो गया और उन्होंने निर्ग्रन्थ दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली।
दैगम्बरी दीक्षा के अनन्तर इन्हें विविध ऋद्धि-सिद्धि उत्पन्न हो गयीं । श्रवणवेल के शिला संख्या (108-258) में इनकी विशेषताओं को दर्शाते हुए
लिखा है
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ
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