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4594545454545454545454545454545457 + की स्तुति करने में कौन समर्थ है? TE आचार्य देवसेन ने वि0स0 990 में (दर्शनसार) नामक ग्रन्थ पूर्वाचायों
द्वारा रचित गाथाओं के संग्रहपूर्वक लिखा है। उनके अनुसार पूज्यपाद का शिष्य पाहुडवेदि वजनन्दि द्राविड संघ का कर्ता हुआ और दक्षिण-मथुरा में वि०सं0 526 में यह महामिथ्यात्वी संघ उत्पन्न हुआ था अतः संघ-स्थापना के पूर्व आचार्य पूज्यपाद विद्यमान थे क्योंकि दाविड़ संघ का संस्थापक उनका ही शिष्य था, जो पाण्डव पुराण में आचार्य शुभचन्द्र द्वारा प्रदत्त गुर्वाविली से
भी स्पष्ट है। नन्दिसंघ की पट्टावली में भी देवनन्दि के बाद गुणनन्दी बजनन्दी 4: नाम है। जैनेन्द्र व्याकरण में "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य" (4.4.140) सूत्र आया 4. - है। इससे ज्ञात होता है कि श्री समन्तभद्र स्वामी के परवर्ती पूज्यपाद स्वामी
थे किन्तु श्री समन्तभद्र ने 'आप्तमीमांसा' नामक कृति श्री पूज्यपाद रचित TE "मोक्षमार्गस्थनेतारं" मंगलाचरण पर की है। इससे प्रतीत होता है कि
समन्तभद्र पूज्यपाद से बाद के हैं। आचार्य विद्यानन्दि ने भी आप्तपरीक्षा की रचना उक्त मंगलाचरण पर ही की है। मंगलाचरण पूज्यपाद रचित ही है ऐसा विद्वानों ने अनेकों तर्क उपस्थति कर सिद्ध किया है।
विविध प्रमाणों के आधार पर यह निर्णय निकलता है कि श्री समन्तभद्र और पूज्यपाद स्वामी समकालीन थे और छठी शताब्दी में उन्होंने साहित्य सृजन कर छठी शताब्दी का समय अपनी स्मृति का हेतु बनवाकर सार्थक । किया।
आचार्यपूज्यपाद की विविध विषयों से संबंधित कृतियों के पर्यालोचन करने के अनन्तर उन्हें निम्नलिखित विशेषणों से समलंकृत किया जा सकता
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विलक्षण प्रतिभाशाली-आचार्य पूज्यपाद का जीवन विविध गुणों का समवाय था। साहित्य के क्षेत्र में आचार्य श्री ने जो भी दिया, वह अनुपम हैं। आगमिक तथ्यों को तर्क की भूमिका पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय उन्हें है।
उनके साहित्य में भक्ति, धर्म, दर्शन, संस्कृति के स्वर मुखर होते हुए भी मूल 2 में अध्यात्म तत्त्व विद्यमान है। अध्यात्मवाद की पृष्ठभूमि पर ही उनका साहित्य TE - सृजन हुआ है। अपने साहित्य के माध्यम से भव्यात्माओं को अनुभूति कराने LE की शक्ति इनकी प्रतिभा का वैशिष्ट्य है। दशमक्तियों के माध्यम से श्रमणों - के लिए शुद्धोपयोग से विरत होने पर शुभोपयोग में लगाया। भक्तियों में
तीर्थकरों की स्तुतियां हैं। भाव मधुर है, भाषा ललित है, शैली सुन्दर है। हरिवंश
पुराण के कर्ता जिनसेन (प्रथम) ने श्री पूज्यपाद की वाणी को इन्द्र, चन्द्र, TE - सूर्य और जैनेन्द्र व्याकरण का अवलोकन करनेवाली बताया है। प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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