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श्री पूज्यपादमुनिरप्रतिमौषद्धिजीयादिदेहजिनदर्शनपूतगात्रः। - यत्पावधीतजलसंस्पर्शप्रभावात् कालायसं किलतराकनकी चकार।। 1E
पूज्यपाद के जीवन में तीन विशिष्टताएँ अद्भुत हुई। यथा-(1) तप के प्रभाव से औषध ऋद्धि प्राप्त हुई थी। (2) विदेह क्षेत्र में जाकर भगवान् सीमंधर की दिव्यध्वनि सनकर उन्होंने अपना जीवन पवित्र किया था। चारणऋद्धि भी प्राप्त की थी।(3) उनके पाद प्रक्षालन द्वारा पवित्र जल के संस्पर्श से लोहा भी स्वर्ण बन जाता था।
इनके विषय में किंवदन्ती भी हैं कि पूज्यपाद के पास कई विद्यायें थीं। वे पैरों पर गगनगामी लेप लगाकर विदेहक्षेत्र तक जाया करते थे।
पूज्यपाद ने नागार्जुन को मंत्र दिया और उसके उपयोग को बताया जिससे उसे सिद्धरस की प्राप्ति हुई उसने उससे सोना बनाया। उसे घमण्ड हो गया। तब उसके घमण्ड को दूर करने के लिए पूज्यपाद ने साधारण वनस्पति से कई घट सिद्ध रस तैयार कर दिया।
इनके विषय में एक महत्त्वपूर्ण घटना भी घटित हुई थी। इन्होंने लम्बे समय तक योगाभ्यास किया। अनन्तर तीर्थयात्रा करते समय मार्ग में इनकी नेत्र-ज्योति विलुप्त हो गई। शान्त्यष्टक' का एक निष्ठा से पाठ करने पर
उनकी लुप्त नयन ज्योति पुनः लौट आई। कुछ समय के अनन्तर उन्होंने TE समाधि ले ली थी।
समयनिर्णय-आचार्य पूज्यपाद ने अपने जन्मस्थान आदि के विषय में जिस प्रकार कुछ नहीं लिखा, उसी प्रकार अपने समय अथवा अपने ग्रन्थ की रचना तिथि आदि का उल्लेख भी नहीं किया है। फिर भी उनके ग्रन्थों में आये हुए
उल्लेखों और अन्य आचार्यों द्वारा लिखित स्तुतियों के आधार पर पूज्यपाद TE का समय निर्धारण किया जा रहा है।
आचार्य श्री पूज्यपाद का समय छठी शताब्दी का पूर्वार्द्ध स्वीकार किया जा सकता है क्योंकि "जैनेन्द्रव्याकरण" के 'वेत्ते सिद्धसेनस्य" (5.1.7) सूत्र में सिद्धसेन का उल्लेख है। सिद्धसेन का समय विद्वानों ने पाँचवीं शताब्दी माना है। अतः इन्हें पांचवीं शताब्दी से परवर्ती ही मानना संगत है। सातवीं शताब्दी के आचार्य जिनसेन ने इन्हें तीर्थकर तुल्य मानकर लिखा है
कवीनां तीर्थकृहेवः किं तसं तत्र वर्ण्यते।
विदुषा वामलध्वंसि तीर्थ यस्य वचोभयम् ।।
अर्थात् जो कवियों में तीर्थंकर के समान थे और जिनका वचन रूपी F1 तीर्थ विद्वानों के वचनमल को धोनेवाला है, उन देव अर्थात् देवनन्दि (पूज्यपाद)
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1 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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