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15454545454545454545454545454545 LF टीका की समाप्ति के बाद आदि पुराण की रचना मानने से जिनसेन स्वामी
का अस्तित्व ई० सन की नवम शती के उत्तरार्ध तक माना जा सकता है। व्यक्तित्व:
आचार्य जिनसेन के वैयक्तिक जीवन के सम्बन्ध में जानकारी अत्यल्प ही प्राप्त होती है। इनकी अन्यतम कृति जयधवलाटीका के अन्त में दी गई । ' पद्यरचना से इनके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में कुछ झलक मिलती है। आचार्य
जिनसेन ने बाल्यकाल में ही जिनदीक्षा ग्रहण कर ली थी। ये सरस्वती के बड़े आराधक थे। इनका शरीर कृश, आकृति भी रम्य नहीं थी। बाह्य व्यक्तित्व के मनोज्ञ न होने पर भी तपश्चरण, ज्ञानाराधन एवं कुशाग्र बुद्धि के कारण ! इनका अन्तरंग व्यक्तित्व बहुत ही भव्य था। ये ज्ञान और अध्यात्म के अवतार थे। जयधवला की प्रशस्ति में जिनसेनाचार्य ने अपना परिचय बड़ी ही अलंकारिक भाषा में इस प्रकार दिया है-उन वीरसेन स्वामी का शिष्य जिनसेन | हुआ, जो श्रीमान् था और उज्ज्वल बुद्धि का धारक भी। उसके कान यद्यपि अबिद्ध थे, तथापि ज्ञान रूपी शलाका से बींधे गये थे। निकट भव्य होने के कारण मुक्तिरूपी लक्ष्मी ने उत्सुक होकर मानों स्वयं ही वरण करने की इच्छा से जिनके लिए श्रुतिमाला की योजना की थी।
जिसने बाल्यकाल से ही अखण्डित ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया था। जो न बहुत सुन्दर थे और न अत्यंत चतुर ही. फिर भी सरस्वती ने अनन्यशरणा होकर उनकी सेवा की थी। बुद्धि, शान्ति और विनय ये ही जिनके स्वाभाविक गुण थे, इन्हीं गुणों से जो गुरुओं की आराधना करते थे। सच ही तो है, गुणों के द्वारा किसकी आराधना नहीं होती। जो शरीर से यद्यपि कृश थे, पुनरपि । तप रूपी गुणों से कृश नहीं थे। वास्तव में शरीर की कृशता, कृशता नहीं है। जो गुणों से कृश हैं, वही कृश है। जिन्होंने न तो कापालिका (सांख्यशास्त्र - पक्ष में तैरने का घड़ा) को ग्रहण किया और न अधिक चिन्तन ही किया, फिर भी जो अध्यात्मविद्या के अद्वितीय (परम) पार को प्राप्त हो गये। जिनका काल निरंतर ज्ञान की आराधना में ही व्यतीत हआ और इसीलिये तत्त्वदर्शी जिन्हें ज्ञानमयपिण्ड कहते हैं।
आदिपुराण के अन्त में कोई प्रशस्ति नहीं दी गई है। परन्तु उत्तरपुराण' TE 11 के अन्त में जो प्रशस्ति प्राप्त होती है, उससे भी कवि जिनसेनाचार्य के - विद्वत्तापूर्ण जीवन की स्पष्ट झाँकी प्रदर्शित होती है। गुणभद्राचार्य ने LE
उत्तरपुराण की प्रशस्ति में अपने गुरु जिनसेनाचार्य के सम्बन्ध में उचित ही Fलिखा है-जिस प्रकार हिमालय पर्वत से गंगा नदी का प्रवाह प्रकट होता
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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