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47 पार्वाभ्युदय में कहा है। पार्वाभ्युदय' संस्कृतसाहित्य में एक कौतुकजन्य - उत्कृष्ट रचना है। यह उस समय के साहित्य-स्वाद का उत्पादक और दर्पण
रूप है, अनुपम काव्य है। यद्यपि सर्वसाधारण की सम्मति से भारतीय कवियों में कालिदास को पहला स्थान दिया गया है तथापि जिनसेन मेघदूत के कर्ता की अपेक्षा अधिकतर योग्य समझे जाने के अधिकारी हैं। वर्षमान पुराण-जिनसेन स्वामी की द्वितीय रचना वर्धमान पुराण मानी जाती
है, जिसका उल्लेख हरिवंशपुराणकार जिनसेन ने अपने ग्रन्थ हरिवंशपुराण TE में किया है; परन्तु वह कहाँ है, इसका आज तक पता नहीं चला है। ग्रन्थ
के नाम से यही स्पष्ट होता है कि इसमें अंतिम तीर्थंकर श्रीवर्धमान स्वामी का कथानक होगा। जयधवलाटीका-कषायप्राभूत के प्रथम स्कन्ध की चारों विभक्तियों पर जयधवला नाम की बीस हजार श्लोक-प्रमाण की टीका लिखने के अनन्तर जब जिनसेनाचार्य के गुरु वीरसेनाचार्य दिवंगत हो गये, तब उनके शिष्य जिनसेन स्वामी ने उसके अवशिष्ट भाग पर चालीस हजार श्लोक-प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। यह टीका जयधवला टीका अथवा वीरसेनीया टीका
के नाम से प्रसिद्ध है। इस टीका में जिनसेनाचार्य ने गुरु वीरसेन स्वामी की - संस्कृत मिश्रित प्राकृत की शैली को ही अपनाया है, अतः कहीं संस्कृत और
कहीं प्राकृत के द्वारा पदार्थ का सूक्ष्मतम विश्लेषण किया है। टीका की भाषा प्रवाहपूर्ण एवं मनोज्ञ है। स्वयं ही अनेक विकल्प और शंकाएँ उठाकर विषयों का सूक्ष्म रूप से निरूपण एवं स्पष्टीकरण किया गया है। आदिपुराण-महापुराण जिनसेनाचार्य और गुणभद्राचार्य की उस विशाल रचना का नाम है जो 76 पर्यों में विभक्त है। इसके दो खण्ड हैं-प्रथम आदिपुराण और द्वितीय उत्तरपुराण । आदिपुराण में 47 पर्व हैं, जिनमें प्रारम्भ के 42 पर्व और 43वें पर्व के तीन श्लोक भगवज्जिनसेनाचार्य द्वारा रचित हैं और अवशिष्ट पांच पर्व तथा उत्तरपुराण श्री जिनसेनाचार्य के प्रमुख शिष्य भदन्त गुणभद्राचार्य द्वारा विरचित हैं।
आदिपुराण में कुलकर तीर्थंकर और चक्रवर्ती जैसे पुण्यपुरुषों के आख्यान के साथ स्वामी जिनसेन ने ग्रन्थ की उत्थानिका में आ 4 सुप्रसिद्ध विद्वानों, आचार्यों एवं कवियों का उनके वैशिष्ट्य के साथ स्मरण
किया है। आदिपुराण की महत्ता बतलाते हुए गुणभद्राचार्य ने लिखा है-"यह आदिनाथ का चरित्र कवि परमेश्वर द्वारा कही हुई गद्य-कथा के आधार पर प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-प्रन्थ
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