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आचार्य कुन्दकुन्द और उनका प्रक्चनसार
वन्द्यो विभुभुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः
कुन्दप्रभाप्रणयिकीर्त्तिविभूषिताशः । यश्चारुचारण कराम्बुजचञ्चरीकश्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ।।
(चन्द्रगिरि-शिलालेख) निर्ग्रन्थ दि. परम्परा में विश्ववन्द्य आ. कुन्दकुन्द का प्रमुख स्थान है। उन्होंने स्वान्तः सुखाय के साथ लोकहिताय विस्तृत रूप से श्रुत का प्रणयन । किया था। वर्तमान तक भगवान महावीर का मोक्षमार्ग जिस सुगठित आचार-संहिता के अन्तर्गत श्रमण-संघ के रूप में निरबाध गति से प्रवहमान है, उसका श्रेय उन्हीं को प्राप्त है।
'प्रवचनसार- परमागम वह प्रकाश-स्तम्भ है जिसके आलोक में मानव कर्मबन्धन रहित होकर अनन्त सुख प्राप्त करने का मार्ग ग्रहण कर सकता है तो फिर ऐहिक सुख-प्राप्ति तो सरल ही है। इस ग्रन्थराज के गाथा-सूत्रों से ही "असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मामृतं गमय" की LE भक्त की कामना ध्वनित होती है। इस वाक्य के तीन खंडों का उद्घोष 'प्रवचन सार' के तीन अध्याय क्रमशः करते हैं ।
1.ज्ञानतत्वप्रज्ञापन-नास्तिकता का परिहार, पदार्थों का उत्पाद-व्ययधौव्य रूप अस्तित्व अर्थात् सत् की पुष्टि, जीव को अपने स्वरूप की श्रद्धा का संकेत, रत्नत्रय की प्रेरणा, ज्ञान-तत्त्व की रुचि रूप सम्यग्दर्शन एवं मुमुक्षु को असत् (अकल्याण, बुराई) से सत् (कल्याण) की ओर इंगित (गाथायें 82) LE असतो मा सदगमय की धारणा की पुष्टि करती है।
2.ज्ञेय तत्त्व प्रज्ञापन-अज्ञान अन्धकार से निवृत्ति, ज्ञान में प्रतिबिम्बित पदार्थों का प्रकाशन, द्रव्य-गुण-पर्याय, षद्रव्य, पञ्चास्तिकाय, सत्संख्या, क्षेत्र आदि अनुयोगद्वारों से जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल का वर्णन, जीव की कर्म, कर्मफल व ज्ञान चेतना का वर्णन (गाथा संख्या 108) सुखकामी
1 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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