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1 भाषा व शब्दावली तो हठयोग-परम्परा आदि से मिलती है, किन्तु उसका विवेचन जैन आध्यात्मिक व सैद्धान्तिक परिधि में मर्यादित रहा है। प्रासंगिक रूप में पुण्य, समता तथा संसार-शरीर व भोगों की दुखमयता एवं अनित्यता
के भी संक्षिप्त किन्तु प्रभावी व्याख्यान उपलब्ध हैं। योगशास्त्रीय विवेचन में TE नादानुसंधान विषयक विवेचन संभवतः सर्वथा नवीन एवं तुलनीय रहा है।
निष्कर्ष-इस ग्रंथ के टीकाकार आचार्य बालचन्द्र अध्यात्मी ने भी 45 इसकी व्याख्या की शैली भले ही सरल रखी है, किन्तु उन्होंने अध्यात्मपरक
विवेचन व विषय के साथ निश्चयव्यवहार दृष्टि का संतुलन बनाते हुये भरपूर न्याय किया है। और उसे व्याख्या-विधि की उत्कृष्टता का सुन्दर निदर्शन बना दिया
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है।
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इस प्रकार मूलग्रंथकार व टीकाकार की आदर्श युति ने इस ग्रंथ को योग और अध्यात्म-शास्त्र के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान किया है। आचार्य जोइन्दु ने अपनी साहित्य साधना के द्वारा जैन योग एवं अध्यात्म को वे क्रांतिकारी आयाम प्रदान किये हैं, जिनके द्वारा वह सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति एवं साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना सका है। न केवल जैन परम्परा,
अपितु सम्पूर्ण भारतीय परम्परा, योग व अध्यात्म विषयक अवदानों के लिये 51 जोइन्दु की चिरऋणी रहेगी।
संदर्भ एवं टिप्पणियां वीरशासन के प्रभावक आचार्य, पृष्ठ 71-72 अपभ्रंश और अवहट्ट : एक अंतर्यात्रा, पृष्ठ 61 जैन धर्म का इतिहास, पृष्ठ 128| परमात्मप्रकाश 1.8-10. 2.2111 परमात्मप्रकाश,-योगसार-डॉ. उपाध्ये विरचित प्रस्तावना का हिन्दी अनुवाद, पृष्ठ 128-134 जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग-3 पृष्ठ, 3861 पृष्ठ 29-134 सिद्धांत सारादि संग्रह देखें-प्रशस्ति।
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास. पं. परमानन्द शास्त्री. 373 10. वीर शासन के प्रभावक आचार्य, पृष्ठ 107
9.
दिल्ली
सुदीप जैन
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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