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4554674545454545454545454545454545 प्रशामिल है। इस ग्रंथ पर प्राचीन टीकाओं का कोई उल्लेख नहीं मिलता।'
दो आधुनिक टीकायें प्रकाशित हुई हैं जिनमें एक है ब्र. शीतलप्रसाद विरचित LE F- योगसार भाषाटीका', जोकि आचार्य अमृतचन्द्र स्मृति ग्रंथमाला, सिवनी से 51 मार्च 1989 में प्रकाशित हुई है, तथा दूसरी है, पं. पन्नालाल चौधरी द्वारा विरचित :
'योगसार वचनिका जो कि गणेशवर्णी दि.जैन संस्थान से (1987 में) प्रकाशित
आ. कुन्दकुन्द व श्री पूज्यपाद स्वामी के ग्रंथों से निषेचित अध्यात्म को इन ग्रन्थों में अधिक क्रांतिकारी (आधुनिक भाषा में आध्यात्मिक रहस्यवाद) बनाते हुए जोइन्दु ने ध्यान-योग व अध्यात्म की सुन्दर त्रिवेणी प्रवाहित की
:
3. निजात्माष्टक-इसमें प्राकृत के (स्रग्धरा-सदृश) आठ पद्यों द्वारा 'परमपदगत निर्विकल्प निजात्मा' का नित्य ध्यान करने की भावना के साथ ध्यान व योग संबंधी विवेचन प्रस्तुत किया है। इस पर अज्ञातकर्तृक (अभी तक अप्रकाशित) कन्नड़ टीका भी प्राप्त होती है, जो भाषा व शैली के आधार पर अमृताशीति के टीकाकार आ. बालचन्द्र अध्यात्मी से काफी साम्य रखती है।
इनमें से योगसार, अमृताशीति और निजात्माष्टक का प्रथम-प्रकाशन माणिकचन्द्र ग्रंथमाला के अंतर्गत 'सिद्धांतसारादिसंग्रह' पुस्तक पं. पन्नालाल सोनी द्वारा सम्पादित होकर सन् 1922 ई. में हुआ था। तथा परमात्मप्रकाश को सर्वप्रथम सन् 1909 में देवबन्द के बाबू सूरजभान वकील ने हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशित कराया था। बाद में परमात्मप्रकाश व योगसार के तो कई संस्करण अनेकों विद्वानों व संस्थाओं ने प्रकाशित कराये हैं। किन्तु आचार्य बालचन्द्र अध्यात्मी विरचित कन्नड़ टीका सहित अमृताशीति का वैज्ञानिक संपादन, अनुवाद, विशेष विवेचन तथा विशद प्रस्तावना सहित, श्री दि. जैन मुमुक्षु मंडल ट्रस्ट उदयपुर के द्वारा प्रकाशन हाल में ही किया गया है। निजात्माष्टक अभी तक प्रायः अनछुआ ही शेष है।
4. अमताशीति का परिचय-संस्कत गाथा में निबद्ध यह 80 पद्यों वाला ग्रंथ है, जैसा कि इसके नाम (अशीति-अस्सी) से भी स्पष्ट है। इसमें 18 पद्य ऐसे हैं, जो कि मूल में 'उक्तञ्च' तथा 'चोक्तम्' कहकर लिखे गये
हैं, अन्यथा अशीति (80) संख्या की पूर्ति नहीं होती। टीकाकार ने भी इन पर प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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