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4545454545454545454545454574 卐 निजात्माष्टक की जैनमठ, मूडबद्री के ग्रंथागार में प्राप्त एक कन्नड़ म
ताडपत्रीय पाण्डुलिपि के आरंभ में "निजात्माष्टकम श्रीयोगीन्द्रदेव विरचितम" तथा अंत में "इति श्री योगीन्द्रदेव विरिचित-निजात्माष्टकं परिसमाप्तम"-प्राप्त ये वाक्यद्वय इसे भी जोइन्दु की ही रचना संकेतित करते हैं।
अतः निष्कर्षतः परमात्मप्रकाश (अपभ्रंश), योगसार (अपभ्रंश) अमृताशीति (संस्कृत) तथा निजात्माष्टक (प्राकृत)-ये चारों जोइन्दु की रचनायें हैं। अन्य 卐 पांचों रचनाओं की जोइन्दु कर्तृता सभी विद्वानों ने संदिग्ध ही मानी है। 4
यहाँ एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य प्राप्त होता है कि जोइन्दु मात्र अपभ्रंश के ही कवि या विद्वान नहीं थे, जैसा कि पं. परमानन्द शास्त्री आदि विद्वानों 卐ने स्वीकार किया है। अमृताशीति के संस्कृत में तथा निजात्माष्टक के प्राकृत भ
में निबद्ध होने से ये संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश के समान अधिकारी विद्वान प्रमाणित होते हैं। कृतियों का परिचय
1. परमात्मप्रकाश-इसके 2 अधिकार है. प्रथम में 136 व द्वितीय में 219 - (कुल 345) दोहे हैं। टीकाकार ब्रह्मदेव ने इनमें क्षेपक तथा स्थल संख्याबाह्य |
प्रक्षेपक भी सम्मिलित माने हैं। इनमें 7 पद्यों (5 गाथायें, 1 स्रग्धरा, 1 मालिनी) की भाषा अपभ्रंश नहीं है। जोइन्दु के अनुसार यह ग्रंथ प्रभाकर भट्ट के अनुरोध पर 'परमात्मा का स्वरूप पाने के लिये लिखा गया है।
इस ग्रंथ पर ब्रह्मदेव सूरि विरचित संस्कृत टीका के अतिरिक्त आ. बालचन्द्रअध्यात्मी विरचित कन्नड़-टीका, कुक्कुटासन मलधारी बालचन्द्र - विरचित अन्य कन्नड़ टीका, एक अज्ञातनामा (संभवतः मुनिभद्रस्वामी के शिष्य)
विरचित कन्नड़ टीका तथा पं. दौलतराम जी कृत भाषा टीका-ये टीकायें
मानी गयी हैं। मुझे मूड़बद्री के ग्रंथागार में 'पद्मनन्दि-मुनीन्द्र' विरचित एक - कन्नड़ टीका की प्रति प्राप्त हुई है, जिसके प्रारंभ में लिखा है
'पद्मनन्दिमुनीन्द्रेण, भावनार्यावबुद्धये। परमात्मप्रकाशस्य, रुच्यावृत्तिर्विरच्यते।।"
इस पद्य के अनसार उक्त टीका का नाम 'रुच्यावति' तथा टीका का LE निमित्त, भावना' नाम की कोई आर्या (कुलीन स्त्री अथवा साध्वी) को बताया
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है।
12. योगसार-इसमें 108 दोहे हैं जिनमें एक चौपाई व एक सोरण छंद भी
| प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ