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नदी के उफान को देखकर सभी को जीवन का अंत दिखाई देने लगा। इतने
में ही नाविक के हाथ एक डंडा आ गया जिसके सहारे नदी पार हो गई। CI 'डबते को तिनके का सहारा' वाली कहावत चरितार्थ हई सभी को नया जीवन
मिला। संघ सवाई माधोपुर पहुंचा, वहाँ पहाड़ के नीचे एकमात्र टावल पहने बालक उमेश ८ घण्टे तक खड़े होकर चिन्तवन में लगे रहे। उपाध्याय श्री जी की यह प्रथम साधना थी जिसमें वे पूर्णरूपेण सफल रहे। क्षुल्लक दीक्षा : साधना निरन्तर वृद्धिगत थी, अन्तरंग आत्म कल्याण की ओर + अग्रसर था, "जहाँ चाह, वहाँ राह" गृह मुक्ति की छटपटाहट सोनगिरी ले । आई और यही रचना हुई निवृत्ति-जीवन के प्रथम अध्याय की अपार भक्ति एवं वैराग्य के परिणामों को देख आ. श्री सुमति सागर जी से जैसे ही आपने क्षुल्लक दीक्षा देने की प्रार्थना की तत्काल ही स्वीकार कर ली गई। अन्ततः ५ नवम्बर १६७६ का वह शुभ दिन भी आया जब एक भव्य समारोह में आपने
केशलौच किया और क्षुल्लक दीक्षा प्राप्त की। अब आपका नाम ब्र. उमेश TE से क्षु. गुणसागर हो गया।
दीक्षा लेते ही श्रद्धा-भक्ति से समन्वित ऊर्जा का प्रवाह कठोर तप व साधना से संयुक्त हो गया। आप सनात्व सिन्धु की अतल गहराईयो को नापने लगे और इधर अज्ञात शक्तियाँ स्वकार्यरत हो गईं। कहते हैं न संयम साधना में संलग्न महापुरुष छोटी आयु में ही तेजस्वी हो जाते हैं। उनमें महान कार्य करने की अपूर्व क्षमता होती है। अपनी शक्ति से वे संसार भर को चमत्कृत कर देते हैं। क्षु० गुणसागर जी भी इससे विलग नहीं। कठोर साधना : एक बार आप सोनागिरि में ध्यानस्थ थे। इतने में ही एक सर्प आया और आपके पॉवों पर खेलने लगा। कभी कमण्डल पर चढ जाता लेकिन आप ध्यानमग्न रहे, आखिर सर्प स्वयं नतमस्तक होकर चला गया, यह आपकी प्रथम परीक्षा थी जिसमें आप पूर्ण रूप से खरे उतरे और आपकी साधुत्व वृत्ति की सर्वत्र प्रशंसा होने लगी।
मुंगावली सागर के मन्दिर की घटना है। आप ध्यानारूढ़ थे। एक छिपकली आकर जंघा पर चढ़ गई। एक-दो घण्टे तक वह दुपट्टे पर बैठी ही रही। महाराज श्री को लगा कि कोई कीड़ा शरीर पर चढ़ गया है। आप ध्यानमग्न ही रहे। छिपकली पीठ व दुपट्टे पर खेलती रही। कहीं अन्यत्र चली गई। छिपकली के स्पर्श से ही शरीर पर फुसियाँ हो जाती हैं। इसके
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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