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उपाध्याय ज्ञानसागर जी : एक चमत्कृत सन्त
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विगत सात वर्षों से उपाध्याय श्री ज्ञानसागर महाराज का नाम जैन संतों की प्रथम पंक्ति में आने लगा है। उनकी निर्दोष तपश्चर्या, ज्ञान साधना एवं भक्तों की उन तक सहज पहुंच ही इसका एकमात्र कारण हो सकता है। समाज के प्रमुख विद्वानों का उनके प्रति आकर्षण भी उनके तपोनिष्ठ व्यक्तित्व की पहिचान है। उपाध्याय जी युवा संत हैं। अभी उन्होंने 34 वर्ष पार किये हैं लेकिन महाकवि कालिदास की "तपसि वयः न समीक्षते" वाली उक्ति के अनुसार उन्होंने वर्षों से मुनि जीवन अपनाये हुये साधुओं को बहुत पीछे छोड़ दिया है।
उपाध्याय श्री को नगरों में विहार करना जरा भी पसन्द नहीं है। उन्होंने अब तक ऐसे गाँवों में विहार किया है जहां जैन परिवार भी अधिक संख्या में नहीं हैं। छोटे-छोटे गाँवों में जैन तो हैं क्योंकि वे जैन कुल में पैदा हुये । हैं लेकिन आचार-विचार एवं धार्मिक ज्ञान से शून्य हैं ऐसे ही गाँवों में विहार करके उन्होंने धार्मिक चेतना जागृत की है। श्रावकधर्म क्या है? मुनिधर्म क्या है? मुनियों के प्रति समाज का क्या कर्तव्य है? आदि विषय भी आपके प्रवचनों के प्रमुख विषय रहते हैं। जैनत्व के प्रमुख चिन्ह रात्रि-भोजन-त्याग एवं देवदर्शन जैसे नियमों में आपने अब तक हजारों नवयुवकों को बांध दिया
उपाध्याय श्री से मेरा स्वयं का भी अधिक पुराना संपर्क नहीं है और वैसे उनके मुनि जीवन को अभी अप्रैल 93 में छटा वर्ष लगा है, तथा । उपाध्याय पद से अलंकृत हुये मात्र 3 वर्ष हुए हैं। हाँ क्षुल्लक अवस्था में LE वे अवश्य 11 वर्ष तक रहे तथा आचार्य विद्यासागर जी, आचार्य सुमतिसागर
जी, आचार्यकल्प श्रुतसागर जी जैसे तपोनिष्ठ संतों के सानिध्य में साधुत्वा LF के गुणों को जीवन में उतारना सीखा। अभी मुझे शिखर जी में आपके LE
सानिध्य में चार दिन तक रहने का सुयोग मिला। एकान्त भी था। भक्तों 51 की ज्यादा भीड़-भाड़ भी नहीं थी। इसके पूर्व खेकड़ा, बिनौली, सरधना, बुढाना, EL
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ