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किया तथा आत्मकल्याण में लगे हुए हैं। ऐलक श्री ज्ञानसागर जी महाराज ___ आपका पूर्व नाम सुगनचन्द जी था। आपका जन्म वि. सं. 1956 में पौष । माह में धमसा जिला ग्वालियर में हुआ था।आपके पिता का नाम श्री प्यारेलाल जी था। साधारण शिक्षा के बाद व्यापार में लग गये। सं. 2011 में विमलसागर जी से सातवीं प्रतिमा ली। सं. 2013 में क्षुल्लक-दीक्षा एवं सं. 2016 में ऐलक दीक्षा ली तथा भारत में गुरुवर्य के साथ विहार किया। ऐलक श्री सन्मतिसागर जी महाराज
कहावत है कि 'पूत के पांव पालने में ही दिखाई देते हैं।' लोकोक्ति कैसी भी हो, परन्तु गांव गढ़ी (भिण्ड) के शिखरचन्द जैन के जीवन में यह कहावत यथार्थ निकली। गढ़ी ग्राम में जैनियों के घर सिर्फ इने-गिने ही हैं। श्री पातीराम जैन खरोबा (गोत्र पांडे) अपनी पत्नी मथुराबाई के साथ अपने सीमित साधनों से निर्वाह करते हुए धर्म साधना करते थे। पुण्ययोग से सं.
1962 में मगसिर कृष्णा 12 को इस दम्पत्ति को पुत्ररत्न का लाभ हुआ।जिसका TE नाम शिखरचन्द रखा गया। आपके जन्म के एक वर्ष पश्चात् आपके माता-पिता
सपरिवार सिरसागंज (मैनपुरी) में आकर बस गये । जहाँ पर आपकी शिक्षा-दीक्षा
हुई। कालान्तर में माता-पिता के देहावसान के बाद आप सपरिवार TE (स्त्री-पुत्र-पुत्रियों सहित) खड़गपुर (पश्चिम बंगाल) में आकर बस गये। परिवर्तन - संसार का नियम है। काललब्धि पाकर फलटण में पू. आचार्य श्री विमलसागर
जी महाराज के दर्शन करते ही आपकी मोहनिद्रा भंग हो गई और गुरु चरणों ITE में आपने सप्तम प्रतिमा के व्रत प्रदान करने की प्रार्थना की। कार्तिक शुक्ल 211 वी. सं. 2485 को आचार्य श्री ने व्रत प्रदान करते हुए आपका नाम मंजिल
के अनुरूप 'शिवसागर रखा। उसी वर्ष फाल्गुन शुक्ला 2 को क्षुल्लक दीक्षा TE प्रदान कर 'ज्ञानसागर' नाम रखा । वैशाख शुक्ल 13 वी. सं. 2487 को काम्पिल्या
में आचार्य श्री ने आपको ऐलक दीक्षा प्रदान करते हुए आपका नाम वृषभसागर घोषित किया। कर्मयोग से स्वास्थ्य के कारण दीक्षोच्छेद करना पड़ा और
क्षुल्लक पद की दीक्षा लेनी पड़ी जहाँ आप पूर्व नाम ज्ञानसागर के नाम से 1 प्रसिद्ध हुए। चार वर्ष बाद पुनः ऐलक दीक्षा लेकर सन्मतिसागर नाम से रत्नत्रय
की आराधना कर रहे हैं।
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 19555555555454545454545454545