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17 श्रीशिखरजी से सातवीं प्रतिमा के धारी ब्रह्मचारी होकर आये हैं।" ग्राम के
सर्व जैनी भाई गाजा-बाजा सहित आकर के विनती कर उनको ग्राम के
मंदिरजी को ले गये। अपने वात्सल्यभाव का उन्होंने परिचय दिया। कुछ 1 दिनों पहले के अपने एक साधारण साधर्मी भाई को ब्रह्मचारी पदधारी देखकर 51 के सब बड़े हर्षित हुए।
दूसरे दिन छाणी में पचोरा रूपचन्द जी के यहाँ आहार हुआ। आहार कराकर उन्होंने बड़ी टीका वाला रत्नकरण्डश्रावकाचार भेंट दिया। पर ब्र. केवलदास अर्थात् हमारे चरितनायक तो उसको पढ़ नहीं सकते थे, तब TE आठ-दस दिन रूपचन्द भाई ने उनको पढ़ाया। यहाँ से आपने आस-पास के 14 ग्रामों में विहार किया। उस समय सभी ने आपको भेंट की तब श्रीगिरिनारजी की यात्रा को गये। इनके साथ पिताजी भी यात्रा करने के हित गए। उनके पिताजी कुछ मिथ्यात्वी थे। वह भगवान के दर्शन तक नहीं । करते थे, सो यह स्वयं समझा-बुझा के साथ ले गये। पुण्यवान जीव स्वयं अपना तो भला करते ही हैं, परन्तु अपने सम्बन्धियों का भी बड़ा हित कर डालते हैं। श्रीगिरिनारजी की यात्रा करके उन्होंने पिताजी का सप्तव्यसन और रात्रि भोजन का त्याग कराया और भगवान के दर्शनों का नियम लिवाया, मानो यह घोषित कर दिया कि भविष्य में हम जगद्गुरु होंगे। वहाँ से श्रीश@जयजी की यात्रा को गये, वहाँ से ईडर आये। यहाँ से चोरीवार चले आये, तब इन्होंने पिताजी से कहा कि "आप घर चले जाइये, हम यहाँ ही विहार करेंगे।" तब आपके पिताजी तो घर चले गये और आप चोरीवार से गोरेला गये। ___गोरेला में पन्नालालजी ऐलक आये। ऐलकजी के साथ वह दक्षिण बारामती शोलापुर की तरफ चले गये। और एक महीना ऐलकजी के साथ में रहे, पर कुछ विद्या का लाभ नहीं हुआ। तब लौटकर गोरेला चले आये। यहाँ आकर चातुर्मास किया। यहाँ भाद्रपद में उन्होंने 17 उपवास किये। इस अन्तर में सिर्फ तीन बार पानी लिया था। यह कोई सरल कार्य न था, पर धर्मात्मा जीवों के लिये यह मुश्किल नहीं है। फिर अष्टाहिनका में 8 उपवास किये। आत्मानुभवी प्राणी को इन उपवासों के करने में बड़ा आनन्द आता है। इन्द्रियों को वश में करने के अचूक उपाय हैं।"
सन् 1927 में प्रकाशित पुस्तिका के इस उद्धरण से पता चलता है । 卐 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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