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मानो वे धर्म गुरु थे। जागीरदार से लेकर गाँव का छोटा से छोटा व्यक्ति उनका अनुयायी बना हुआ था। ऐसे महात्मा के समाधिमरण के पश्चात् किसे दुख नहीं होगा? उस दिन उनके वियोग में सब दुखी थे ।
सभी जैन पत्रों में आचार्यश्री के समाधिमरण के विस्तृत समाचार प्रकाशित हुए । 'जैन-मित्र' के सम्पादकीय में आचार्यश्री को महामानव का रूप बतलाया गया। 'दिगम्बर जैन ने अपने सम्पादकीय में उन्हें बागड़ प्रान्त का गौरव' लिखा। समाज के सभी नेताओं ने उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की और उनके स्वर्गवास को समाज के लिये अपूरणीय क्षति बतलाया गया। साहू श्रेयांसप्रसाद जी, साहू शान्तिप्रसादजी आदि द्वारा श्रद्धांजलियाँ अर्पित की गईं। अनेक जैन शिक्षा संस्थाओं में अवकाश रखा गया ।
व्यक्तित्व
आचार्य शान्तिसागरजी छाणी विशाल व्यक्तित्व के धनी थे। अपने 21 वर्ष के मुनि एवं आचार्य जीवन में उन्होंने समाज को देखा, परखा और उसे अपनी इच्छानुसार ढालने का प्रयास किया। जब उन्होंने मुनि धर्म को अंगीकार किया उस समय इस क्षेत्र में अकेले थे। उनके सामने कोई दूसरा मुनि नहीं था, इसलिये उन्होंने जिस तरह मुनि जीवन को जनता के सामने प्रस्तुत किया. उसकी तुलना किसी अन्य मुनि से नहीं की जा सकती थी। लेकिन जब उन्होंने समाधिमरण लिया उस समय 4-5 आचार्य एवं पचास के करीब मुनि उत्तर भारत में विहार कर रहे थे। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर जी महाराज थे । छाणी महाराज के शिष्य सूर्यसागरजी भी आचार्य बन चुके थे। आचार्य कुंथूसागरजी को छाणी महाराज ने ही आचार्य पद दिया था। लेकिन इन सबके बीच छाणी महाराज की पहचान अलग ही थी।
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आचार्यश्री अपने प्रवचनों में समाज सुधार की बात करते थे। कन्या-विक्रय को वे मांस खाने के बराबर कहते थे. इसलिये बागड़प्रदेश को इस बुराई से पूरी तरह मुक्ति मिल गई थी। वे अपने प्रवचनों में मांस, मदिरा सेवन को घातक आचरण बतलाते थे तथा उसको छोड़ने के लिये जैन एवं जैनेतर सभी का आह्वान करते थे। उनके उपदेशों से प्रभावित होकर कितने ही धीवरों ने मछली पकड़ना छोड़ दिया। यहाँ तक कि मछली पकड़ने के जाल भी फेंक दिये। हलवाई ने बिना छने पानी से मिठाई बनाना छोड़ा और पानी प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ
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