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दिगम्बर मुनि के आगमन का निषेध था, वह प्रतिबंध उठ गया और सर्वत्र 1 दिगम्बर साधु के प्रभाव द्वारा भारत में धर्मध्वजा फहरी, इतिहास इसका साक्षी है। हरिजन मंदिर प्रवेश के बिल से जैन मंदिर मुक्त हुए, यह सब ना चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर महाराज (दक्षिण) के तप, त्याग का ही प्रभाव है।
दो संघों का मिलन .. आचार्य शांतिसागर जी महाराज (दक्षिण) और आचार्य शांतिसागर जी
महाराज (छाणी) उन दोनों संघों का बड़ा आश्चर्यकारी मिलन एक स्थान
पर हुआ वह स्थान था अजमेर (मेवाड़) के पास व्यावर शहर। इस व्यावर - शहर में दोनों संघ के सफल चातुर्मास हुए जिन्होंने यह दृश्य देखा वे उसका वर्णन बड़े जोरों से कर रहे हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि मानों यह गंगा
और यमुना का संगम ही था। उस चातुर्मास में रानीवाले सेठ साहब की प्रधान भूमिका रही थी। दूर-दूर से समाज के लोग आते थे। विद्वानों का जमघट रहता था। सेठ साहब का आना-जाना, चौके आदि की धूम रहती थी। अब तो अनेक नवीन साधु दक्षिण वाले आचार्य श्री द्वारा दीक्षित हुए और हजार वर्ष के बाद समस्त उत्तर भारत में दक्षिण भारत की तरफ दिगम्बर साधुओं की महिमा बढ़ने लगी। और यत्र तत्र दिगम्बर साधुओं के दर्शन, धर्म श्रवण और आहार देने का लाभ समाज को पूर्णतः मिलने लगा। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर जी, महाराज को बहुत सम्मान देते थे। सभा
में दोनों आचार्यों का समान आसन सबके मध्य में रहता था। संघ के सब TE साधु छाणी वाले महाराज श्री को विनय से नमोऽस्तु करते थे।
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ऋषभदेव में चातुर्मास
विक्रम संवत् 1988 में शांतिसागर जी महाराज का ऋषभदेव (केशरिया) मेरे जन्म गांव में चातुर्मास हुआ। मेरे स्वर्गीय पिताजी चुन्नीलाल जी मेश्वोत जो कि मुनियों को आहार दान देने व मुनि भक्ति में यहां की समाज में
सर्वप्रथम थे, तथा स्व. सेठ सोहनलाल जी सर्राफ एवं स्व. श्री दुलीचंद जी का गंगवाल आदि ने चातुर्मास में बहुत योगदान दिया। यहां संघ सहित आचार्य 卐 श्री का चातुर्मास धूमधाम और प्रभावकारी रहा। मैं उन दिनों उदयपुर में इन्हीं
1 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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