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ग्राम-ग्राम में धर्म का सम्यक् बोध कराने के लिए स्वयं ब्रम्ह का ज्ञान
करते, उसका आचरण करते, फिर बीर के मार्ग पर धीर भाव से चल पड़ते
और जन-जन को मांस, मधु का त्याग कराते हुए चलते हैं। भुजंगप्रयात
गदो चार वासो धरे बम्हचेरं, महा-खुल्लगं दिक्ख-सिक्खा-वएणं रमंतो च धम्मे वसे सागवाड़े, किदो केस लुचं समं वत्थचागं ।। ब्रह्मचर्य को धारण करने के बाद क्षुल्लक दीक्षा की शिक्षा के व्रत से युक्त चार वर्ष व्यतीत कर दिये, फिर सागवाड़ा में धर्म का आचरण करते हुए केशलुञ्च पूर्वक स्वयं ही वस्त्र त्याग दिए ।
पंकावली
बागड़ प्रान्त के इतिहास की अनुपम दीक्षा जन-जन के मन को प्रेरित करने वाली थी। यह मुनिमार्ग की दिगम्बर दीक्षा साधु मानी गई। जय जयकार रूप सुशान्ति की अमृत धारा फूट पड़ी।
चामर
सो जण - जण-मण- भावण-दिक्खउ साहु-जय-जय - सुसंति - सुधाधर । राजदि मुणि-पह - दिगंबर - दिक्खउ बागड़-गड-इदिवुत्त-महा धर ।। 6 ।।
उत्तरप्पदेस - संति - साहु- सम्म देसणे भत्ति - जुत्त- मोह-मुत्त-मज्ज - मंस - णिग्वुदा । माणवाण - णारि - वुंद - बाल - बुड्ढ - णिज्जणे संति-पाद-चाग-भाव- धम्म-सम्म संगदा ।। 7 ।। उत्तरभारत की शान्तिपूर्ण सम्यक् देशना से नारियों, बालकों, वृद्धों और
मानवों का समूह एवं अनार्य भी भक्ति युक्त होकर मद्य-मांस से रहित, मोह मुक्त आचार्य शान्ति सागर के चरणों में त्याग भाव से युक्त सम्यक् धर्म की संगति में जाते हैं।
रंगरूपक
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ता सव्व-आनंद-कंदेण-धावंति, दस-हेदुं जणा सागवाडाए ।
जेणीसरी दिक्ख-सिक्खेण रजंति, जा संति-सासास-आभं वि दीर्सेति । 18 ।।
जैसे ही इस तरह की दीक्षा को लोगों ने सुना, वैसे ही सागवाडा की
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ
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