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वे ही वीर कहलाते हैं
त्याग के अनंग संग ध्यान मे हए जो रंग,
छोड़ नारी संग ज्ञान भंग को पिलाते हैं। बुद्धिमान, ज्ञानवान, धर्मवान, शक्तिवान,
पूज्य मुनिराज धर्म ध्यान को सिखाते हैं। आतम में मस्त रहें, ध्यान में ही लग्न रहें,
तन में नग्न रहें धर्म को सुनाते हैं। ऐसे भव्य बन्धु मुनिराज शान्तिसिन्धु गुरु, कहत 'महेन्द्र' वे ही वीर कहलाते हैं।।
(2) अहो यह भोग अति पाप को संयोग देख,
त्याग नारी जोग, ध्यान आत्म में लगाते हैं। दिव्य देहधारी, शक्तिधारी, कर्महारी मुनि,
नग्न देहधारी, जैन धर्म को जगाते हैं। त्याग जगजाल फन्द पाया है आनन्द कन्द,
छोड़ परिजन वृन्द धैर्य को सिखाते हैं। ऐसे शान्तिसिन्धु जैनधर्म के स्वरूप गुरु.
कहत 'महेन्द्र' वे ही वीर कहलाते हैं।
महेन्द्रकुमार ‘महेश'
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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