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प्रथम उनका आहार पचोरा रूपचन्द जी के यहां हुआ। उनको रत्नकरण्डश्रावकाचार की बड़ी टीका वाला ग्रंथ भेंट में दिया। ब्रह्मचारी जी इतने पढ़े-लिखे तो थे नहीं कि उस ग्रंथ का स्वाध्याय करते इसलिये बिना हिचक के 8-10 दिन तक रूपचन्द भाई से ग्रन्थ को पढ़ा। उनके समय में समाज
ब्रह्मचारियों का भी बहुमान था इसलिये ब्रह्मचारी केवलदास अपने गाँव को छोड़कर अन्य गाँवों में विहार करने लगे। ब्र. भगवानदास के अनुसार उन्होंने आसपास के 24 गाँवों में विहार किया। सभी ने आपको यथायोग्य भेंट में दिया ।
विभिन्न स्थानों में विहार
ब्र. केवलदास का अपने पिताजी पर भी प्रभाव पड़ा और वे अपने पुत्र के त्याग को देखकर उनका सम्मान करने लगे। ब्रह्मचारी जी अपने पिताजी को अपने साथ गिरनार की यात्रा में ले गये और वहाँ उन्होंने अपने पिता से सप्त व्यसन का त्याग कराया, प्रतिदिन देवदर्शन का नियम दिलाया तथा रात्रि भोजन त्याग कराया। पिताजी ने अपने पुत्र को गुरु के रूप में स्वीकार किया और एक नये जीवन में प्रवेश किया। गिरनार की यात्रा करके उन्होंने शत्रुंजयजी की यात्रा सम्पन्न की और वहाँ से ईडर होते हुए चोरीवार गाँव में आ गये। यहाँ उन्होंने अपने पिता को वापिस छाणी भेज दिया और स्वयं गोरेला चले आये जहाँ ऐलक पन्नालालजी आये हुये थे। उन दिनों समाज में ऐलक पन्नालाल जी का बडा प्रभाव था। वे उनके साथ एक महिना रहे तथा वारामती शोलापुर की ओर गये। ब्र. केवलदास को ऐलक जी के एक महीना साथ रहने पर भी स्वाध्याय का कोई विशेष लाभ नहीं हुआ इसलिये फिर वे गोरेला चले आये और वहाँ ब्रह्मचारी अवस्था का प्रथम चातुर्मास किया। उन्होंने भाद्रपद मास में 17 उपवास किये और इस अन्तर में केवल तीन बार जल ग्रहण किया एवं अष्टनिका में 8 उपवास किये और आत्मानुभव एवं आत्म शुद्धि की ओर बढ़ने लगे।
सर्प की प्राण रक्षा
कार्तिक कृष्णा 11 थी । ब्र. केवलदास जी का उपवास था। सामयिक करने के पश्चात् जैसे ही वे तख्त पर लेट रहे थे तो देखा कि एक बड़ा
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ
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