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44556696457455454545454545454545 51 उदयपुर चातुर्मास-सन् 1935/संवत् 1992
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सागवाड़ा के पश्चात आप बागड़ प्रदेश के कितने ही गाँवों में विहार करते हुए उदयपुर में आपने चातुर्मास स्थापित किया। उदयपुर में आपका यह प्रथम चातुर्मास था। आपके प्रति समाज का पहिले से ही सहज आकर्षण एवं भक्ति थी। इसलिये यह चातुर्मास भी उल्लास पूर्वक समाप्त हुआ और धर्मवृद्धि हुई। समाज में सामंजस्य बढ़ा। आचार्यश्री जिन नियमों का पूर्ण रीति से पालन करते थे और जो उनके व्यक्तित्व को प्रभावक बनाने की
दिशा में सहायक सिद्ध हुये वे इस प्रकार हैं:11. केशलोंच के समाचार किसी से प्रगट नहीं करना और अपना मूलगण
पालन करने के लिए एकान्त-स्थल में बैठकर केशलोंच कर लेना। केशलोंच करते समय केशलोंच सम्बन्धी या पीछी-कमण्डलु और शास्त्र अर्पण करने की बोली बोलने की अनुमति नहीं देना। किसी भी संस्था के लिये न चन्दा कराना और न कहीं पर भिजवाना, दान का उपदेश सुनकर कोई कुछ त्याग करे तो वह धन वहाँ की विद्या संस्थाओं, शास्त्रालयों के लिये उपयोग करें, अथवा जहाँ उचित समझें, विद्यालयादि स्थानों को दें, यह दातार की स्वेच्छा पर छोड़ देना। अपने साथ सवैतनिक नौकर न रखना। कोई भी चन्दा कराने वाले मुनि ऐलक,क्षल्लक, आर्यिका, ब्रह्मचारी-जनों को अपने साथ नहीं रखना। यदि कोई साथ रहकर गृहस्थ से किसी भी प्रकार की द्रव्यादि वस्तुओं की याचना करे तो उसे संघ से पृथक कर देना।
पात्र-परीक्षा पूर्वक ही दीक्षा या व्रत-नियम देना। 7. अपने साथ चटाई आदि न रखना और न उन पर सोना, बैठना।
जिसके घर पर आहार होगा, उससे किसी प्रकार के दान का आग्रह नहीं करना। यथा सम्भव किसी मेले आदि में जहाँ नर-नारियों का आधिक्य हो वहाँ पर नहीं जाना।
यद्यपि उक्त नियम स्वयं ने ही बनाये थे लेकिन उनको अपने ऊपर पूरी तरह लागू करते थे। इन नियमों के कारण समाज ने आपमें एक आदर्श
मुनि का रूप देखा, जिसे वह कभी नहीं भुला सकी। उदयपुर में खण्डेलवाल, 4 अग्रवाल जैनों के साथ नरसिंहपुरा, नागदा, हुबमड़ आदि का भी अच्छा स्थान
है। सभी ने आपके चातुर्मास से लाभ लिया। जयपुर
डॉ. कासलीवाल 4172
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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