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ब्रह्मचारी केवलदास अपने वर्तमान पद से सन्तुष्ट नहीं थे। उनके : क्षल्लक दीक्षा लेने के भाव हो रहे थे। अतः अढाई द्वीप मंडल-विधान पूजा समापन के दिन ब्र. केवलदास जी ने उपस्थित जनसमूह को अपने क्षुल्लक दीक्षा लेने के भावों की जानकारी दी। ब्रह्मचारी जी के भावों को सुनकर - जन मानस प्रसन्नता से भर गया। गढ़ी गाँव के लिये भी वह शुभ दिन माना
गया, क्योंकि इसके पूर्व इस छोटे से गाँव में किसी ने दीक्षा नहीं ली थी। TE परन्तु वहाँ कोई निर्ग्रन्थ गुरु नहीं था। इसलिये क्षुल्लक दीक्षा कौन दे, इसका TF
निर्णय नहीं हो सका। ब्र. केवलदास जी ने प्रार्थना की, कि मैं देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् के समक्ष, सम्पूर्ण उपस्थित समाज की अनुमति से स्वयं ही क्षुल्लक दीक्षा धारण करना चाहता हूँ। इसके पश्चात् शास्त्रोक्त विधि से ब्रह्मचारी के कपड़ों को त्याग कर मात्र एक लंगोटी लगाकर एक चादर ओढ़ ली। शेष सब परिग्रह छोड़ दिये। उन्होंने स्वयं अपना नाम शान्तिसागर रख लिया। चारों ओर क्षुल्लक शान्तिसागर जी महाराज की जयजयकार होने लगी। समाज में अपूर्व आनन्द छा गया।
बागड़ प्रदेश में यह प्रथम अवसर था जब किसी पुण्यात्मा ने क्षुल्लक दीक्षा ली हो। आसपास के लोग उनके दर्शनों को आने लगे। वे जहाँ भी जाते दर्शकों की भीड़ लग जाती थी, क्योंकि इसके पूर्व किसी साधु का उधर विहार नहीं हुआ था। अब उनकी प्रवचन सभाओं में जैनों के अतिरिक्त जैनेतर समाज भी आने लगा। लोग अपनी सामान्य बोली में प्रवचन सुनकर अपने भाग्य की सराहना करते। क्षुल्लक जी महाराज भी आस-पास के गाँवों
में विहार करके सभी को अपने प्रवचनों से लाभान्वित करने लगे। बागड़ TH प्रदेश को ही उन्होंने अपना मुख्य केन्द्र बनाया।
क्षुल्लक अवस्था में उन्होंने अपना प्रथम चातुर्मास परतापुर कस्बा में LE किया। परतापुर बाँसवाड़ा जिले का एक छोटा किन्तु अच्छा कस्बा है। जहाँ
जैन घरों की भी अच्छी संख्या थी, जिनमें गुरुओं के प्रति आदर सत्कार की भावना गहरी थी। आहार देने के प्रति वे बहुत जागरूक रहते थे। समाज में आपस में सामंजस्य था। चार महीने तक परतापुर जैन समाज धन्य हो LE गया। उसे ऐसा पहिले अवसर कहाँ मिल पाता था। क्षुल्लक जी महाराज अहिंसा धर्म के पालन पर बहुत जोर देते थे। जैनेतर समाज को मांस-भक्षण 51 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर भणी स्मृति-ग्रन्थ
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